Holy Pilgrimage – Temples in Uttarakhand State ( Traditional fairs in Kumaon) - 8










































Holy Pilgrimage – Temples in  Uttarakhand State






कुमाऊँ  के मेले

 देवीधुरा में वाराही देवी मंदिर के प्रांगण में प्रतिवर्ष रक्षावन्धन के अवसर पर श्रावणी पूर्णिमा को पत्थरों की वर्षा का एक विशाल मेला जुटता है । मेले को ऐतिहासिकता कितनी प्राचीन है इस विषय में मत-मतान्तर हैं । लेकिन आम सहमति है कि नह बलि की परम्परा के अवशेष के रुप में ही बगवाल का आयोजन होता है ।

लोक मान्यता है कि किसी समय देवीधुरा के सघन बन में बावन हजार वीर और चौंसठ योगनियों के आतंक से मुक्ति देकर स्थानीय जन से प्रतिफल के रुप में नर बलि की मांग की, जिसके लिए निश्चित किया गया कि पत्थरों की मार से एक व्यक्ति के खून के बराबर निकले रक्त से देवी को तृप्त किया जायेगा, पत्थरों की मार प्रतिवर्ष श्रावणी पूर्णिमा को आयोजित की जाएगी । इस प्रथा को आज भी निभाया जाता है । लोक विश्वास है कि क्रम से महर और फव्यार्ल जातियों द्वारा चंद शासन तक यहाँ श्रावणी पूर्णिमा को प्रतिवर्ष नर बलि दी जाती थी ।

इतिहासकारों का मानना है कि महाभारत में पर्वतीय क्षेत्रों में निवास कर रही एक ऐसी जाति का उल्लेख है जो अश्म युद्धमें प्रवीण थी तथा जिसने पाण्डवों की ओर से महाभारत के युद्ध में भाग लिया था । ऐसी स्थिति में पत्थरों के युद्ध की परम्परा का समय काफी प्राचीन ठहरता है । कुछ इतिहासकार इसे आठवीं-नवीं शती ई. से प्रारम्भ मानते हैं । कुछ खास जाति से भी इसे सम्बिन्धित करते हैं ।

बगवाल को इस परम्परा को वर्तमान में महर और फव्यार्ल जाति के लोग ही अधिक सजीव करते हैं । इनकी टोलियाँ ढोल, नगाड़ो के साथ किंरगाल की बनी हुई छतरी जिसे छन्तोली कहते हैं, सहित अपने-अपने गाँवों से भारी उल्लास के साथ देवी मंदिर के प्रांगण में पहुँचती हैं । सिर पर कपड़ा बाँध हाथों में लट्ठ तथा फूलों से सजा फर्रा-छन्तोली लेकर मंदिर के सामने परिक्रमा करते हैं । इसमें बच्चे, बूढ़े, जवान सभी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं । बगवाल खेलने वाले द्यौके कहे जाते हैं । वे पहले दिन से सात्विक आचार व्यवहार रखते हैं । देवी की पूजा का दायित्व विभिन्न जातियों का है । फुलारा कोट के फुलारा मंदिर में पुष्पों की व्यवस्था करते हैं । मनटांडे और ढ़ोलीगाँव के ब्राह्मण श्रावण की एकादशी के अतिरिक्त सभी पर्वों पर पूजन करवा सकते हैं । भैंसिरगाँव के गढ़वाल राजपूत बलि के भैंसों पर पहला प्रहार करते हैं । 

बगवाल का एक निश्चित विधान है । मेले के पूजन अर्चन के कार्यक्रम यद्यपि आषाढि कौतिक के रुप में एक माह तक लगभग चलते हैं लेकिन विशेष रुप से श्रावण माह की शुक्लपक्ष की एकादशी से प्रारम्भ होकर भाद्रपद कष्णपक्ष की द्वितीया तिथि तक परम्परागत पूजन होता है । बगवाल के लिए सांगी पूजन एक विशिष्ट प्रक्रिया के साथ सम्पन्न किया जाता है जिसे परम्परागत रुप से पूर्व से ही सम्बन्धित चारों खाम (ग्रामवासियों का समूह) गढ़वाल चम्याल, वालिक तथा लमगडिया के द्वारा सम्पन्न किया जाता है । मंदिर में रखा देवी विग्रह एक सन्दुक में बन्द रहता है । उसी के समक्ष पूजन सम्पन्न होता है । यही का भार लमगड़िया खाम के प्रमुख को सौंपा जाता है । जिनके पूर्वजों ने पूर्व में रोहिलों के हाथ से देवी विग्रह को बचाने में अपूर्व वीरता दिखाई थी । इस बीच अठ्वार का पूजन होता है । जिसमें सात बकरे और एक भैंस का बलिदान दिया जाता है ।

पूर्णिमा को भक्तजनों की जयजयकार के बीच डोला देवी मंदिर के प्रांगण में रखा जाता है । चारों खाम के मुखिया पूजन सम्पन्न करवाते है । गढ़वाल प्रमुख श्री गुरु पद से पूजन प्रारम्भ करते है । चारों खामों के प्रधान आत्मीयता, प्रतिद्वेंदिता, शौर्य के साथ बगवाल के लिए तैयार होते हैं ।

द्यीकों के अपने-अपने घरों से महिलाये आरती उतार, आशीर्वचन और तिलक चंदन लगाकर हाथ में पत्थर देकर ढोल-नगाड़ों के साथ बगवाल के लिए भेजती हैं । इन सबका मार्ग पूर्व में ही निर्धारित होता है । मैदान में पहँचने का स्थान व दिशा हर खाम की अलग होती है । उत्तर की ओर से लमगड़ीया, दक्षिण की ओर से चम्याल, पश्चिम की ओर से वालिक और पूर्व की ओर से गहड़वाल मैदान में आते हैं । दोपहर तक चारों खाम देवी के मंदिर के उत्तरी द्वार से प्रवेश करती हुई परिक्रमा करके मंदिर के दक्षिण-पश्चिम द्वार से बाहर निकलती है । फिर वे देवी के मंदिर और बाजार के बीच के खुले मैदान में दो दलों में विभक्त होकर अपना स्थान घेरने लगते हैं ।

दोपहर में जब मैदान के चारों ओर भीड़ का समुद्र उमड़ पड़ता है तब मंदिर का पुजारी बगवाल प्रारम्भ होने की घोषणा शुरु करता है । इसके साथ ही खामों के प्रमुख की अगुवाई में पत्थरों की वर्षा दोनों ओर से प्रारम्भ होती है । ढ़ोल का स्वर ऊँचा होता जाता है, छन्तोली से रक्षा करते हुए दूसरे दल पर पत्थर फेंके जाते हैं । धीरे-धीरे बगवाली एक दूसरे पर प्रहार करते मैदान के बीचों बीच बने ओड़ (सीमा रेखा) तक पहुँचने का प्रयास करते हैं । फर्रों की मजबूत रक्षा दीवार बनायी जाती है । जिसकी आड़ से वे प्रतिद्वन्दी दल पर पत्थरों की वर्षा करते हैं । पुजारी को जब अंत:करण से विश्वास हो जाता है कि एक मानव के रक्त के बराबर खून बह गया होगा तब वह ताँबें के छत्र और चँबर के साथ मैदान में आकर बगवाल सम्पन्न होने की घोषणा करता है । 

बगवाल का समापन शंखनाद से होता है । तब एक दूसरे के प्रति आत्मीयता दर्शित कर द्यौके धीरे-धीरे खोलीखाण दूबाचौड़ मैदान से बिदा होते हैं । मंदिर में अर्चन चलता है ।

कहा जाता है कि पहले जो बगवाल आयोजित होती थी उसमें फर का प्रयोग नहीं किया जाता था, परन्तु सन् १९४५ के बाद फर का प्रयोग किया जाने लगा । बगवाल में आज भी निशाना बनाकर पत्थर मारना निषेध है ।

रात्रि में मंदिर जागरण होता है । श्रावणी पूर्णिमा के दूसरे दिन बक्से में रखे देवी विग्रह की डोले के रुप में शोभा यात्रा भी सम्पन्न होती है । कई लोग देवी को बकरे के अतिरिक्त अठ्वार-सात बकरे तथा एक भैंस की बलि भी अर्पित करते हैं ।

वैसे देवीधुरा का वैसर्गिक सौन्दर्य भी मोहित करने वाला है, इसीलिए भी बगवाल को देखने दूर-दूर से सैलानी देवीधुरा पहँचते हैं ।




चैती मेला - काशीपुर



चैती का मेला इस क्षेत्र का प्रसिद्ध मेला है जो नैनीताल जनपद में काशीपुर नगर के पास प्रतिवर्ष चैत की नवरात्रि में आयोजित किया जाता है । इस स्थान का इतिहास पुराना है । काशीपुर में कुँडश्वरी मार्ग जहाँ से जाता है, वह स्थान महाभारत से भी सम्बन्धित रहा है । इस स्थान पर अब बालासुन्दरी देवी का मन्दिर है । मेले के अवसर पर दूर-दूर से यहाँ श्रद्धालु आते हैं ।

यूँ तो शाक्त सम्प्रदाय से सम्बन्धित सभी मंदिरों में नवरात्रि में विशाल मेले लगते हैं लेकिन माँ बालासुन्दरी के विषय में जनविश्वास है कि इन दिनों जो भी मनौती माँगी जाती है, वह अवश्य पूरी होती है । फिर भी नवरात्रि में अष्टमी, नवमी व दशमी के दिन यहाँ श्रद्धालुओं का तो समुह ही उमड़ पड़ता है । बालासुन्दरी के अतिरिक्त यहाँ शिव मंदिर, भगवती ललिता मंदिर, बृजपुर वाली देवी के मंदिर, भैरव व काली के मंदिर हैं । वैसे माँ बालासुन्दरी का स्थाई मंदिर पक्काकोट मुहल्ले में अग्निहोत्री ब्राह्मणों के यहाँ स्थित है । इन लोगों को चंदराजाओं से यह भूमि दान में प्राप्त हुई थी । बाद में इस भूमि पर बालासुन्दरी देवी का मन्दिर स्थापित किया गया । बालासुन्दरी की प्रतिमा स्वर्णनिर्मित बताई जाती है ।

कहा जाता है कि आज जो लोग इस मन्दिर के पंडे है, उनके पूर्वज मुगलों के समय में यहाँ आये थे । उन्होंने ही इस स्थान पर माँ बालासुन्दरी के मन्दिर की 
स्थापना की । कहा जाता है कि तत्कालीन मुगल बादशाह ने भी इस मंदिर को बनाने में सहायता दी थी ।

नवरात्रियों में यहाँ तरह-तरह की दूकानें भी अपना सामान बेचने के लिए लगती हैं । थारु लोगों की तो इस देवी पर बहुत ज्यादा आस्था है । थारुओं के नवविवाहित जोड़े हर हाल में माँ से आशीर्वाद लेने चैती मेले में जरुर पहुँचते हैं । देवी महाकाली के मंदिर में बलिदान भी होते हैं । अन्त में दशमी की रात्रि को डोली में बालासुन्दरी की डोली में बालासुन्दरी की सवारी अपने स्थाई भवन काशीपुर के लिए प्रस्थान करती है । मेले का समापन इसके बाद ही होता है ।

प्राय: चैती मेले का रंग तभी से आना शुरु होता है जब काशीपुर से डोला चैती मेला स्थान पर पहुँचता है । डोले में प्रतिमा को रखने से पूर्व अर्धरात्रि में पूजन होता है तथा बकरों का बलिदान भी किया जाता है । डोले को स्थान-स्थान पर श्रद्धालु रोककर पूजन अर्चन करते और भगवती को अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करते है 



गबलादेव का मेला - जनपद पिथौरागढ़


सीमान्त जनपद पिथौरागढ़ की दारमाघाटी अपने नैसर्गिक सौन्दर्य के लिए प्रसिद्ध है । तेरह हजार फुट से अधिक की ऊँचाई पर रहने वाले लोग प्रकृति की दुरुहता को झेलते हुए भी किस प्रकार जीते हैं, गबलादेव के मेले में देखा जा सकता है । तिब्बत-नेपाल दारमा घाटी से लगे हुए हैं । इस दारमा घाटी का सबसे बड़ा मेला है - गबलादेव का मेला । गबलादेव चूँकि शौकाओं का इष्टदेव है, इसलिए यह आयोजन धार्मिक जीवन से जुड़ा है । दारमा घाटी के जन-जीवन पर तिब्बत की संस्कृति की गहरी छाप है । इसलिए गबलादेव भी बौद्ध 'शाक्यमुनि' तथा हिन्दू महादेव शिव का समन्वयात्मक रुप हैं । अगस्त के तीसरे सप्ताह में मनाये जाने वाले इस मेले की तिथि का निर्धारण सीमान्त के अन्तिम दाँत और बुगत नामक ग्राम करते हैं । जो गाँव इस मेले में भाग लेते हैं वे हैं - दाँत, गो, बौन, मार्छा, दुग्त, सेला, चल, किंग, सिव, तिदांग, सोन, डाकर, बालिंग तथा नागलिंग ।

परम्परागत वाद्ययन्त्रों से सजे-धजे, छोलिया नर्तकों की अगुवाई में शौका उमंग के साथ इस मेले में भाग लेते हैं ।



जौलजीवी मेला - जनपद पिथौरगढ़



जौलजीवी नामक कस्बा पिथौरगढ़ में मानसरोवर के ऐतिहासिक मार्ग पर अवस्थित है । यह पिथौरगढ़ जिला मुख्यालय से ६८ कि.मी. की दूरी पर बसा है । यहाँ प्रतिवर्ष १४ नवम्बर, बाल दिवस के अवसर पर प्रसिद्ध मेला आयोजित होता है ।

जौलजीवी मेले को प्रारम्भ करने का श्रेय पाल ताल्लुकदार स्व. गजेन्द्रबहादुर पाल को जाता है । उन्होंने ही यह मेला सन् १९१४ में प्रारम्भ किया था, यद्यपि उस समय यह मेला धार्मिक दृष्टिकोण से ही प्रारम्भ हुआ तो भी धीरे-धीरे इसका जो स्वरुप उभरकर सामने आया वह मुख्य रुप से व्यवसायिक था । जौलजीवी भी कैलाश मानसरोवर के प्राचीन यात्रा मार्ग पर बसा है । स्व. गजेन्द्रबहादुर पाल अस्कोट के ताल्लुकदार थे । जौलजीवी में काली-गौरी नदियों का संगम है और शिव का प्राचीन मंदिर । स्कनदपुराण में भी वर्णित है कि मानसरोवर जाने वाले यात्री को काली-गोरी के संगम पर स्नानकर आगे बढ़ना चाहिये । इसलिए मार्गशीर्ष महीने की संक्रान्ति को मेले का शुभारम्भ भी संगम पर स्नान से ही होता है । इसके पश्चात् महादेव की पूजा अर्चना की जाती है । प्राय: कुमाऊँ में लगने वाले सभी मेलों की तरह इस प्रसिद्ध मेले का स्वरुप भी प्रारम्भ में धार्मिक ही था जो बाद में व्यापार प्रधान होता गया । चीनी आक्रमण से पहले तक यह मेला उत्तरभारत का सबसे प्रसिद्ध व्यापारिक मेला था । इस मेले में तिब्बत और नेपाल के व्यापारियों की सक्रिय भागीदारी होती थी । इसमें नेपाल के जुमली डोटी के व्यापारी सबसे अधिक आते थे 
। तब उत्तर प्रदेश के ही नहीं कलकत्ता तक से माल की खरीद के लिए व्यापारी मेले से भी पहले पहुँच जाते थे । जौहार, दारमा, व्यास, चौंदास घाटी के ऊनी माल के लिए तो इस मेले का विशेष रुप से इंतजार किया जाता था । तब गौरी और काली नदियों पर पुल नहीं थे । इसलिए अस्कोट के राजाओं द्वारा गोरी नदी पर कच्चा पुल बनाया जाता तो नेपाल की ओर से भी काली नदी पर पुल डाला जाता था ।

असकोट के पाल राजाओं ने ही यहाँ जैलेश्वर महादेव तथा अन्नपूर्णा देवी के मन्दिरों की स्थापना की । जमीनें मन्दिरों को दान में दी गयीं तथा पुजारी की विधिवत् नियुक्ति हुई ।

जौलजीवी मेले के व्यापारिक महत्व को देखते हुए तिब्बती व शौका व्यापारी सांभर, खाल, चँवर, पूँछ, कस्तूरी, जड़ी-बूटियों को लेकर आने लगे । कपड़ा, नमक , तेल, गुड़, हल, निंगाल के बने डोके, काष्ठ उपकरण-बर्तन आदि यहाँ प्रचुर मात्रा में बिकते थे । उस समय यह क्षेत्र सड़कों और आवागमन की दृष्टि से दुरुह था । जौलजीवी तक सड़क भी नहीं पहुँची थी । इसलिए नेपाल-तिब्बत का भी यही सबसे प्रमुख व्यापारिक स्थल बना । अपनी जरुरतें पूरी करने के लिए आसपास के सभी इलाके इसी मेले पर निर्भर हो गये थे ।

जौलजीवी का यह मेला चीनी आक्रमण के बाद सबसे अधिक प्रभावित हुआ । तिब्बत का माल आना बन्द हो गया जिससे ऊनी व्यापार पर विपरीत प्रभाव पड़ा । काली नदी के तट पर जो बाजार लगते था, वह भी धीरे-धीरे खत्म होने लगा हालांकि अब भी दन, कालीन, चुटके, पश्मीने, पँखियाँ, थुल्में आदि यहाँ बिकने आते हैं, लेकिन तब के व्यापार और अब में अन्तर बहुत हो गया है ।

मेला अब स्वत: स्फूर्त कम और प्रशासनिक ज्यादा हो गया है । इसलिए इस मेले का उपयोग अब विभिन्न सरकारी विभाग अपने कार्यक्रमों के प्रचार-प्रसार में अधिक करते हैं । मेले में आये विभिन्न सांस्कृतिक दल भी अपने हुनर को दक्षता के साथ प्रस्तुत करते हैं ।





कोट की माई का मेला



कोट की माई का मंदिर अल्मोड़ा से ग्वालदम जानेवाले रास्ते पर बैजनाथ से ३ कि.मी. की दूरी पर ऊँची चोटी पर स्थित है । यहाँ पहुँचने के लिए १ से ११/२ कि.मी. की खड़ी चढ़ाई चढ़नी पड़ती है । रणचूला नाम से विख्यात इस स्थान पर कभी कव्यूरी राजाओं ने अपना किला बनवाया था । गढ़वाल यात्रा के समय जगतगुरु शंकराचार्य भी इस स्थान पर कव्यूरी राजाओं के अतिथि बने थे । उन्होंने बैजनाथ मंदिर की शिला की यहाँ प्राणप्रतिष्ठा की और पूजन आरम्भ करवाया । बाद में वे ही कोटा की माई के नाम से पूजित हुई ।

एक कथा यह भी है कि एक समय यह समूची कव्यूर घाटी जल प्लावन के कारण पानी में डूबी हुई थी तथा जल के भीतर अरुण नामक दैव्य ने अपनी राजधानी बनाई हुई थी । इस दैव्य के आतंक से परेशान देवताओं को प्राण देने के लिए शक्ति रुपा देवी ने भ्रामरी रुप धारण कर दैव्य का अंत किया था । यह कथा दुर्गासप्तशती में भी मिलती है ।

स्थानीय जनश्रुतियों के अनुसार भी एक समय में समूची कव्यूरी घाटी में जल प्लावन था । इस कारण गरुड़ के पास वर्तमान में अवस्थित अणां गाँव की भूमि भी पानी में डूबी हुई थी । पहाड़ में छीना उस स्थान को कहते हैं जहाँ दो पर्वत के पास चक्रवर्तवेश्वर नामक स्थान को अपनी राजधानी बनाया था । अरुण दैव्य का यह राजधानी जल के अंदर बनी थी । इन्द्र की प्रार्थना पर भगवती ने भ्रामरी रुप धारण कर हरछीना पर्वत को तोड़कर जल के निकास का आदेश दिया और जब पानी समाप्त होने पर अरुण अपनी राजधानी से बाहर आया तो उसकी जीवन लीला समाप्त कर दी । यह देवी तब से कोट की भ्रमरी के नाम से पूजित हुई ।

चंद राजाओं के शासन काल में नंदादेवी, कोट मंदिर के नीचे झालामाली गाँव में स्थापित थीं । तब से मेलाडुंगरी के भन्डारी ठाकुर उनकी पूजा का कार्य सँभालते हैं । चंद राजाओं के शासनकाल में बकरों तथा भैंसे की बलि नीचे ही दी जाती थी । उस समय नंदादेवी का मेला हर तीसरे वर्ष नीचे ही लगता था । भ्रामरी के मंदिर में चेत्र की अष्टमी को प्रति वर्ष मेला लगता था । बाद में नंदा की स्थापना भी कोट में भ्रामरी के साथ की गयी । चंद वंशीय राजा जगतचंद ने ग्राम झालामाली तथा ग्राम डूंगरी मंदिर को गूँठ में चढ़ाया । रोज चंड़ी पाठ के लिए भेंटा ग्राम के लोहूमी ब्राह्मणों को नियुक्त किया । जखेड़ा के पड्यारों ने हर वर्ष मेला बनाने का निर्णय लिया और अब उनकी ओर से भंडारा होता है ।

प्राय: मेला तीन दिन में सम्पन्न होता है । नौटी गाँव से आया हुआ नंदाराजजात का पूजा का सामान यहाँ पहले से ही मंगा लिया जाता है । मेला आरम्भ होने पर सबसे पहले नंदा की जागर लगाने वाले जगरिये न्योते जाते हैं, ये जगरियें भेटी ग्राम से आते हैं । चंद राजाओं ने जागर लगाने की एवज में इन जगरियों को भेटी ग्राम में जमीन दी थी । तब से परम्परा बनी हुई है कि जगरिये मेले में जागर लगाने के लिए न्योते जायेंगे । पंचमी को जगरिये न्योते जाते हैं तथा षष्ठी एवं सप्तमी को जागर लगती है । सप्तमी के दिन केले के स्तम्भ लाने से पहले केले के खामें का पूजन करने के बाद इनसे प्रतिमा का निर्माण किया जाता है । प्रतिमा निर्माण को देवी का डिकरा बनाना कहा जाता है । बताया जाता है कि प्रतिमा का श्रंगार चंद राजाओं के समय में एक लाख रुपये का व्यय होता था । अब इस धरोहर सुरक्षा की जिम्मेदारी द्योनाई के बोरा लोगों की है । वे ही देवी के श्रंगार का सामान उत्सव के मौके पर मंदिर में लाते हैं । जेवर को भी ढ़ोल-नगाड़ों के साथ ही लाया जाता है । अपराह्म ४ बजे तक देवी की प्रतिमा तैयार हो जाती है । पुजारी के ऊपर देवी अवतरित होती है । रात्रि में भैंसे का बलिदान होता है । महिष को मेला ड़ूँगरी के लोग आते हैं । दूसरा बलिदान अष्टमी के दिन अपराह्म डेढ़ बजे होता है । तब तक भारी सँख्या में दूर दराज के गाँवों से आये श्रद्धालु जमा हो जाते है । सायं डोला उठने से पहले देवी का भोग लगाया जाता है । यह भोग छत्तीस प्रकार के व्यंजनों से तैयार किया जाता है । व्यंजन बनाने के लिए रसोईया गाँव से विशेष रुप से आता है । देवी को भोग लगाने की जिम्मेदारी इसी रसोईये की है । सभी कार्य सम्पन्न हो जाने पर ही डोला उठता है । अवतरित देवी को जगह-जगह नचाया जाता है । अन्त में डोला झालामाली गाव होता हुआ देवीधारा नामक जल धाराओं के पास पहुँचता है । जहाँ देवी प्रतिमा का प्रतिष्ठापूर्वक विसर्जन किया जाता है ।





मोष्टामाणू का मेला - जनपद पिथौरागढ़




पिथौरागढ़ जनपद मुख्यालय के चतुर्दिक फैले ग्रामीण क्षेत्रों में तीन प्रसिद्ध मेलों का प्रतिवर्ष आयोजन किया जाता है । भाद्रपद की गणेश चतुर्थी को ध्वज नामक पहाड़ की चोटी पर देवी मेला लगता है । इसके दूसरे दिन हरियाली तृतीया को किरात वेश में रहने वाले भूमि के स्वामी केदार नाम से पूजित शिव के मंदिर स्थल केदार में मेला लगता है । थल केदार जनपद मुख्यालय से ११ कि.मी. दक्षिण पूर्व में नौ हजार फुट की ऊँचाई पर स्थित है । तीसरे दिन ॠषि पंचमी को पिथौरागढ़ से ६ कि.मी. की दूरी पर लगभग छ: हजार फुट की ऊँचाई पर इस जिले का प्रसिद्ध और दर्शनीय मेला सम्पन्न होता है । यह मेला मौष्टामाणू का मेला कहलाता है ।

मोष्टामाणू का मंदिर पिथौरागढ़ नगर के पास पश्चिम-उत्तर दिशा में एक ऊँची चोटी पर स्थित है । मोष्टामाणू शब्द का अर्थ है - मोष्टादेवता का मंडप । लोक जगत में विश्वास है कि मोष्टादेवता जल वृष्टि करते हैं । वे इन्द्र के पुत्र हैं । मोष्टा की माता का नाम कालिका है । वे भूलोक में मोष्टा देवता के ही साथ निवास करती हैं । इन्द्र ने पृथ्वी लोक में उसे भोग प्राप्त करने हेतु अपना उत्तराधिकारी बनाया । दंत कथाओं में कहा जाता है कि इस देवता के साथ चौंसठ योगिनी, बावन वीर, आठ सहस्र मशान रहते हैं । 'भुँटनी बयाल' नामक आँधी तूफान उसके बस में हैं । मोष्टा देवता के रुष्ट हो जाने पर वे सर्वनाश कर देते हैं । वह बाइस प्रकार के वज्रों से सज्जित है । माता कालिका और भाई असुर देवता के सहयोग से वह नाना प्रकार से असंभव कार्यों को सम्पादित करता है । मोष्टा और असुर दोनों के सामने बलिदान नहीं होता परन्तु उनके सेवकों के लिए भैंसे और बकरे का बलिदान किया जाता है ।

मोष्टा को नागदेवता माना जाता है । उनकी आकृति मोष्टा या निंगाल की चटाई की तरह मानी गयी है । उन्हें विषों से युक्त नाग माना जाता है । इसलिए जो लोग नागपंचमी को नागदेवता की पूजा नहीं कर पाते वे मेले के दिन यहाँ आकर उनका पूजन सम्पन्न कर लेते हैं ।

मेले के अवसर पर मोष्टा देवता का रथ निकलता है । इसे जमान कहते हैं । लोग इसके दर्शन के लिए दूर-दूर से आते हैं ।

इस मेले का व्यापारिक स्वरुप भी है । स्थानीय फल फूल के अतिरिक्त किंरगाल की टोकरियाँ, चटाइयाँ, कृषियंत्रों काष्ठ बर्तनों तथा तरह-तरह की वस्तुओं की खरीद फरोख्त होती है ।

मेले के अवसर पर लोक गायक ओर नर्तक भी पहुँचते हैं । हुड़के की थाप पर नृत्यों की महफिलें सजती हैं, गायन होता है । शाम होते-होते मेले का समापन होता है । वर्तमान में सरकारी विभाग भी अपने-अपने कार्यक्रमों का प्रचार-प्रसार के लिए मेले का उपयोग करते है ।




नंदादेवी मेला-अल्मोड़ा


समूचे पर्वतीय क्षेत्र में हिमालय की पुत्री नंदा का बड़ा सम्मान है । उत्तराखंड में भी नंदादेवी के अनेकानेक मंदिर हैं । यहाँ की अनेक नदियाँ, पर्वत श्रंखलायें, पहाड़ और नगर नंदा के नाम पर है । नंदादेवी, नंदाकोट, नंदाभनार, नंदाघूँघट, नंदाघुँटी, नंदाकिनी और नंदप्रयाग जैसे अनेक पर्वत चोटियाँ, नदियाँ तथा स्थल नंदा को प्राप्त धार्मिक महत्व को दर्शाते हैं । नंदा के सम्मान में कुमाऊँ और गढ़वाल में अनेक स्थानों पर मेले लगते हैं । भारत के सर्वोच्य शिखरों में भी नंदादेवी की शिखर श्रंखला अग्रणीय है लेकिन कुमाऊँ और गढ़वाल वासियों के लिए नंदादेवी शिखर केवल पहाड़ न होकर एक जीवन्त रिश्ता है । इस पर्वत की वासी देवी नंदा को क्षेत्र के लोग बहिन-बेटी मानते आये हैं । शायद ही किसी पहाड़ से किसी देश के वासियों का इतना जीवन्त रिश्ता हो जितना नंदादेवी से इस क्षेत्र के लोगों का है ।

कुमाऊँ मंड़ल के अतिरिक्त भी नंदादेवी समूचे गढ़वाल और हिमालय के अन्य भागों में जन सामान्य की लोकप्रिय देवी हैं । नंदा की उपासना प्राचीन काल से ही किये जाने के प्रमाण धार्मिक ग्रंथों, उपनिषद और पुराणों में मिलते हैं । रुप मंडन में पार्वती को गौरी के छ: रुपों में एक बताया गया है । भगवती की ६ अंगभूता देवियों में नंदा भी एक है । नंदा को नवदुर्गाओं में से भी एक बताया गया है । भविष्य पुराण में जिन दुर्गाओं का उल्लेख है उनमें महालक्ष्मी, नंदा, क्षेमकरी, शिवदूती, महाटूँडा, भ्रामरी, चंद्रमंडला, रेवती और हरसिद्धी हैं । शिवपुराण में वर्णित नंदा तीर्थ वास्तव में कूर्माचल ही है । शक्ति के रुप में नंदा ही सारे हिमालय में पूजित हैं ।

नंदा के इस शक्ति रुप की पूजा गढ़वाल में करुली, कसोली, नरोना, हिंडोली, तल्ली दसोली, सिमली, तल्ली धूरी, नौटी, चांदपुर, गैड़लोहवा आदि स्थानों में होती है । गढ़वाल में राज जात यात्रा का आयोजन भी नंदा के सम्मान में होता है ।
कुमाऊँ में अल्मोड़ा, रणचूला, डंगोली, बदियाकोट, सोराग, कर्मी, पौथी, चिल्ठा, सरमूल आदि में नंदा के मंदिर हैं ।अनेक स्थानों पर नंदा के सम्मान में मेलों के रुप में समारोह आयोजित होते हैं । नंदाष्टमी को कोट की माई का मेला और नैतीताल में नंदादेवी मेला अपनी सम्पन्न लोक विरासत के कारण कुछ अलग ही छटा लिये होते हैं परन्तु अल्मोड़ा नगर के मध्य में स्थित ऐतिहासिकता नंदादेवी मंदिर में प्रतिवर्ष भाद्र मास की शुक्ल पक्ष की अष्टमी को लगने वाले मेले की रौनक ही कुछ अलग है ।

अल्मोड़ा में नंदादेवी के मेले का इतिहास यद्यपि अधिक ज्ञात नहीं है तथापि माना जाता है कि राजा बाज बहादुर चंद (सन् १६३८-७८) ही नंदा की प्रतिमा को गढ़वाल से उठाकर अल्मोड़ा लाये थे । इस विग्रह को वर्तमान में कचहरी स्थित मल्ला महल में स्थापित किया गया । बाद में कुमाऊँ के तत्कालीन कमिश्नर ट्रेल ने नंदा की प्रतिमा को वर्तमान से दीप चंदेश्वर मंदिर में स्थापित करवाया था ।

अल्मोड़ा शहर सोलहवीं शती के छटे दशक के आसपास चंद राजाओं की राजधानी के रुप में विकसित किया गया था । यह मेला चंद वंश की राज परम्पराओं से सम्बन्ध रखता है तथा लोक जगत के विविध पक्षों से जुड़ने में भी हिस्सेदारी करता है

पंचमी तिथि से प्रारम्भ मेले के अवसर पर दो भव्य देवी प्रतिमायें बनायी जाती हैं । पंचमी की रात्रि से ही जागर भी प्रारंभ होती है । यह प्रतिमायें कदली स्तम्भ से निर्मित की जाती हैं । नंदा की प्रतिमा का स्वरुप उत्तराखंड की सबसे ऊँची चोटी नंदादेवी के सद्वश बनाया जाता है । स्कंद पुराण के मानस खंड में बताया गया है कि नंदा पर्वत के शीर्ष पर नंदादेवी का वास है । कुछ लोग यह भी मानते हैं कि नंदादेवी प्रतिमाओं का निर्माण कहीं न कहीं तंत्र जैसी जटिल प्रक्रियाओं से सम्बन्ध रखता है । भगवती नंदा की पूजा तारा शक्ति के रुप में षोडशोपचार, पूजन, यज्ञ और बलिदान से की जाती है । सम्भवत: यह मातृ-शक्ति के प्रति आभार प्रदर्शन है जिसकी कृपा से राजा बाज बहादुर चंद को युद्ध में विजयी होने का गौरव प्राप्त हुआ । षष्ठी के दिन गोधूली बेला में केले के पोड़ों का चयन विशिष्ट प्रक्रिया और विधि-विधान के साथ किया जाता है ।

षष्ठी के दिन पुजारी गोधूली के समय चन्दन, अक्षत, पूजन का सामान तथा लाल एवं श्वेत वस्र लेकर केले के झुरमुटों के पास जाता है । धूप-दीप जलाकर पूजन के बाद अक्षत मुट्ठी में लेकर कदली स्तम्भ की और फेंके जाते हैं । जो स्तम्भ पहले हिलता है उससे नन्दा बनायी जाती है । जो दूसरा हिलता है उससे सुनन्दा तथा तीसरे से देवी शक्तियों के हाथ पैर बनाये जाते हैं । कुछ विद्धान मानते हैं कि युगल नन्दा प्रतिमायें नील सरस्वती एवं अनिरुद्ध सरस्वती की हैं । पूजन के अवसर पर नन्दा का आह्मवान 'महिषासुर मर्दिनी' के रुप में किया जाता है । सप्तमी के दिन झुंड से स्तम्भों को काटकर लाया जाता है । इसी दिन कदली स्तम्भों की पहले चंदवंशीय कुँवर या उनके प्रतिनिधि पूजन करते है । उसके बाद मंदिर के अन्दर प्रतिमाओं का निर्माण होता है । प्रतिमा निर्माण मध्य रात्रि से पूर्व तक पूरा हो जाता है । मध्य रात्रि में इन प्रतिमाओं की प्राण प्रतिष्ठा व तत्सम्बन्धी पूजा सम्पन्न होती है ।

मुख्य मेला अष्टमी को प्रारंभ होता है । इस दिन ब्रह्ममुहूर्त से ही मांगलिक परिधानों में सजी संवरी महिलायें भगवती पूजन के लिए मंदिर में आना प्रारंभ कर देती हैं । दिन भर भगवती पूजन और बलिदान चलते रहते हैं । अष्टमी की रात्रि को परम्परागत चली आ रही मुख्य पूजा चंदवंशीय प्रतिनिधियों द्वारा सम्पन्न कर बलिदान किये जाते हैं । मेले के अन्तिम दिन परम्परागत पूजन के बाद भैंसे की भी बलि दी जाती है । अन्त में डोला उठता है जिसमें दोनों देवी विग्रह रखे जाते हैं । नगर भ्रमण के समय पुराने महल ड्योढ़ी पोखर से भी महिलायें डोले का पूजन करती हैं । अन्त में नगर के समीप स्थित एक कुँड में देवी प्रतिमाओं का विसर्जन किया जाता है ।

मेले के अवसर पर कुमाऊँ की लोक गाथाओं को लय देकर गाने वाले गायक 'जगरिये' मंदिर में आकर नंदा की गाथा का गायन करते हैं । मेला तीन दिन या अधिक भी चलता है । इस दौरान लोक गायकों और लोक नर्तको की अनगिनत टोलियाँ नंदा देवी मंदिर प्राँगन और बाजार में आसन जमा लेती हैं । झोड़े, छपेली, छोलिया जैसे नृत्य हुड़के की थाप पर सम्मोहन की सीमा तक ले जाते हैं । कहा जाता है कि कुमाऊँ की संस्कृति को समझने के लिए नंदादेवी मेला देखना जरुरी है । मेले का एक अन्य आकर्षण परम्परागत गायकी में प्रश्नोत्तर करने वाले गायक हैं, जिन्हें बैरिये कहते हैं । वे काफी सँख्या में इस मेले में अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं । अब मेले में सरकारी स्टॉल भी लगने लगे हैं ।





नंदादेवी मेला-नैनीताल




अल्मोड़ा की ही भांति नैनीताल में भी नंदादेवी मेला आस्था और विश्वास के साथ मनाया जाता है । कहा जाता है कि अल्मोड़ा से जाकर लोगों ने ही नैनीताल में भी इस मेले की शुरुआत की थी । वर्ष १९१८-१९ ई. में स्थानीय लोगों की पहल पर इस त्यौहार को नैनीताल में भी जातीय पर्व के रुप में मनाया जाने लगा । मेले को सुचारु रुप से संचालित करने के लिए श्री राम सेवक सभा द्वारा वर्ष १९३८ में व्यवस्था अपने हाथ में ले ली गयी । वर्तमान में भी इस संस्था के पास व्यवस्था का सारा कार्य है ।

नैनीताल में मेले के धार्मिक कार्य कार्यकलाप पंचमी से ही प्रारंभ होते हैं । यहाँ भी नंदा प्रतिमाओं को कदली स्तम्भों से ही निर्मित किया जाता है । मेले के लिए ब्राह्मण नैनीताल के पास बसे ज्योलीकोट से आते हैं । अल्मोड़ा की ही तरह कदली स्तम्भों का चयन विधिविधान से किया जाता है । मल्लीताल में स्थित धर्मशाला में तब विधि अनुसार चयनित किये गये कदली स्तम्भों के पूजन अर्चन के बाद मेले की गतिविधियाँ प्रारम्भ हो जाती है । तब स्थानीय शिल्पी अपनी प्रतिभा और प्रज्ञा से परम्परानुसार नंदामुखाकृतियाँ निर्मित करते हैं । मुखाकृतियों के आंगिक श्रंगार और उनके आभूषणों से अलंकृत करने के बाद उनका पूजन किया जाता है, प्राण प्रतिष्ठा की जाती है । 

मेले को चूँकि महोत्सव का रुप दे दिया गया है, इसलिए विसर्जन होने तक लगातार पूजन, अर्चन चलता है, साँस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं । 

मेले के अन्तिम दिन परम्परागत रुप से शोभा यात्रा निकाली जाती है । नन्दा माँ की जय जयकार करते हजारों लोग इस शोभायात्रा में सम्मिलित होते हैं । प्रतिमाओं पर अक्षत, पुष्प आदि अर्पित किये जाते हैं । अन्त में पाषाण देवी मंदिर के पास इन देवी विग्रहों को विसर्जित किया जाता है ।

मेले के दौरान दूर-दर से आये लोकगायक, नर्तक अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं




पूर्णागिरी मेला



नैनीताल जनपद के पड़ोस में और पिथौरागढ़ जनपद में अवस्थित पूर्णागिरी का मंदिर अन्नपूर्णा शिखर पर ५५०० फुट की ऊँचाई पर है । कहा जाता है कि दक्ष प्रजापति की कन्या और शिव की अर्धांगिनी सती की नाभि का भाग यहाँ पर विष्णु चक्र से कट कर गिरा था । प्रतिवर्ष इस शक्ति पीठ की यात्रा करने आस्थावान श्रद्धालु कष्ट सहकर भी यहाँ आते हैं । यह स्थान टनकपुर से मात्र १७ कि.मी. की दूरी पर है । अन्तिम १७ कि.मी. का रास्ता श्रद्धालु अपूर्व आस्था के साथ पार करते हैं ।

लेकिन शरद् ॠतु की नवरात्रियों के स्थान पर मेले का आनंद चैत्र की नवरात्रियों में ही अधिक लिया जा सकता है क्योंकि वीरान रास्ता व इसमें पड़ने वाले छोटे-छोटे गधेरे मार्ग की जगह-जगह दुरुह बना देते हैं । चैत्र की नवरात्रियों में लाखों की संख्या में भक्त अपनी मनोकामना लेकर यहाँ आते हैं । अपूर्व भीड़ के कारण यहाँ दर्शनार्थियों का ऐसा ताँता लगता है कि दर्शन करने के लिए भी प्रतीक्षा करनी पड़ती है । मेला बैसाख माह के अन्त तक चलता है ।

ऊँची चोटी पर गाढ़े गये त्रिशुल आदि ही शक्ति के उस स्थान को इंगित करते हैं जहाँ सती का नाभि प्रवेश गिरा था ।

पूर्णगिरी क्षेत्र की महिमा और उसके सौन्दर्य से एटकिन्सन भी बहुत अधिक प्रभावित था उसने लिखा है -

"
पूर्णागिरी के मनोरम दृष्यों की विविधता एवं प्राकृतिक सौन्दर्य की महिमा अवर्णनीय है, प्रकृति ने जिस सर्व व्यापी वर सम्पदा के अधिर्वक्य में इस पर्वत शिखर पर स्वयं को अभिव्यक्त किया है, उत्तरी और दक्षिणी अमेरिका का कोई भी क्षेत्र शायद ही इसकी समता कर सके किन्तु केवल मान्यता व आस्था के बल पर ही लोग इस दुर्गम घने जंगल में अपना पथ आलोकित कर सके हैं ।" 

यह स्थान महाकाली की पीठ माना जाता है, नेपाल इसके बगल में है । जिस चोटी पर सती का नाभि प्रदेश गिरा था उस क्षेत्र के वृक्ष नहीं काटे जाते । टनकपुर के बाद ठुलीगाढ़ तक बस से तथा उसके बाद घासी की चढ़ाई चढ़ने के उपरान्त ही दर्शनार्थी यहाँ पहुँचते हैं । रास्ता अत्यन्त दुरुह और खतरनाक है । क्षणिक लापरवाही अनन्त गहराई में धकेलकर जीवन समाप्त कर सकती है । नीचे काली नदी का कल-कल करता रौख स्थान की दुरुहता से हृदय में कम्पन पैदा कर देता है । रास्ते में टुन्नास नामक स्थान पर देवराज इन्द्र ने तपस्या की, ऐसी भी जनश्रुती है । 

मेले के लिए विशेष बसों की व्यवस्था की जाती है जो टनकपुर से ठुलीगाढ़ तक निसपद पहुँचा देती है । भैरव पहाड़ और रामबाड़ा जैसे रमणीक स्थलों से गुजरने के बाद पैदल यात्री अपने विश्राम स्थल टुन्नास पर पहुँचते हैं जहाँ भोजन पानी इत्यादि की व्यवस्थायों हैं । यहाँ के बाद बाँस की चढ़ाई प्रारम्भ होती है जो अब सीढियाँ बनने तथा लोहे के पाइप लगने से सुगम हो गयी है । मार्ग में पड़ने वाले सिद्ध बाबा मंदिर के दर्शन जरुरी हैं ।

रास्ते में चाय इत्यादि के खोमचे मेले के दिनों में लग जाते हैं । नागा साधु भी स्थान-स्थान पर डेरा जमाये मिलते हैं । झूठा मंदिर के नाम से ताँबे का एक विशाल मंदिर भी मार्ग में कोतूहल पैदा करता है ।

प्राचीन बह्मादेवी मंदिर, भीम द्वारा रोपित चीड़ वृक्ष, पांडव रसोई आदि भी नजदीक ही हैं । ठूलीगाड़ पूर्णागिरी यात्रा का पहला पड़ाव है ।

झूठे मंदिर से कुछ आगे चलकर काली देवी तथा महाकाल भैंरों वाला का प्राचीन स्थान है जिसकी स्थापना पूर्व कूमार्ंचल नरेश राजा ज्ञानचंद के विद्वान दरबारी पंडित चंद्र त्रिपाठी ने की थी । मंदिर की पूजा का कार्य बिल्हागाँव के बल्हेडिया तथा तिहारी गाँव के त्रिपाठी सम्भालते हैं ।

वास्तव में पूर्णागिरी की यात्रा अपूर्व आस्था और रमणीक सौन्दर्य के कारण ही बार-बार श्रद्धालुओं और पर्यटकों को भी इस ओर आने को उत्साहित सा करती है । इस नैसर्गिक सौन्दर्य को जो एक बार देश लेता है वह अविस्मरणीय आनंद से विभोर होकर ही वापस जाता है । कुमाऊँ क्षेत्र के कुमैंये, पूरब निवासी पुरबिये, थरुवाट के थारु, नेपाल के गौरखे, गाँव शहर के दंभ छोड़े निष्कपट यात्रा करने वाले श्रद्धालु मेले की आभी को चतुर्दिक फैलायो रहते हैं ।





रामेश्वर का मेला - जनपद पिथौरागढ़



रामेश्वर जिला पिथौरागढ़ में सरयू और पूर्वी रामगंगा के संगम पर बसा है । यह स्थान शिव की आराधना करने के लिए भी इतिहास प्रसिद्ध रहा है । कभी यहाँ रामेश्वर गिरी नामक किसी साधु ने अपना आसन जमाया और यह स्थान रामेश्वर नाम से प्रसिद्ध हो गया । यह भी किवंदती है कि यहाँ किसी दक्षिणात्य पंडित ने यज्ञ द्वारा शिव को संतुष्ट किया था और सेतुबंध रामेश्वरम् के नाम पर उसका नामकरण किया । महाराज उद्योतचन्द्र ने १६०४ शाके में रामेश्वर के मंदिर को भूमिदान में दी थी । उन्होंने यहाँ की पूजा अर्चना को व्यवस्थित किया । मंदिर को सरयू से थोड़ा दूर बनाया गया है । उत्तरायण में इस संगम पर स्नान करने की परम्परा है । सरयू में दीप दान की भी यहाँ परम्परा थी ।

रामेश्वर का मेला रात्रि में लगता है । यह पूर्वोत्तर कुमाऊँ का सबसे बड़ा शमशान है । वर्षों पहले लगने वाले मेले में यहाँ ग्रामवासियों के समूह अपने अलग-अलग खेड़े का निर्माण कर लेते थे । निषिड़ रात्रि में अलाव जलाकर उसके चारों ओर महफिलें जमतीं । लोकगायक यहाँ नृत्यगीतों की महफिलें सजा देते थे । मंदिर के ऊपर के समतल मैदान में यह मेला लगता था । बैरियों के प्रश्नोत्तर होते थे । तब ब्रह्ममुहूर्त में स्नान होता था । बिल्व पत्रों से शिव को प्रसन्न किया जाता था ।

इस मेले में भी व्यापारिक खरीद फरोख्त की जाती थी । मेले का सांस्कृतिक पक्ष अधिक सशक्त नहीं रह गया है ।



स्याल्दे - बिखौती का मेला


अल्मोड़ा जनपद के द्वाराहाट कस्बे में सम्पन्न होने वाला स्याल्दे बिखौती का प्रसिद्ध मेला प्रतिवर्ष वैशाख माह में सम्पन्न होता है । हिन्दू नव संवत्सर की शुरुआत ही के साथ इस मेले की भी शुरुआत होती है जो चैत्र मास की अन्तिम तिथि से शुरु होता है । यह मेला द्वाराहाट से आठ कि.मी. दूर प्रसिद्ध शिव मंदिर विभाण्डेश्वर में लगता है । मेला दो भागों में लगता है । पहला चैत्र मास की अन्तिम तिथि को विभाण्डेश्वर मंदिर में तथा दूसरा वैशाख माह की पहली तिथि को द्वाराहाट बाजार में । मेले की तैयारियाँ गाँव-गाँव में एक महीने पहले से शुरु हो जाती हैं । चैत्र की फूलदेई संक्रान्ति से मेले के लिए वातावरण तैयार होना शुरु होता है । गाँव के प्रधान के घर में झोड़ों का गायन प्रारम्भ हो जाता है ।

चैत्र मास की अन्तिम रात्रि को विभाण्डेश्वर में इस क्षेत्र के तीन धड़ों या आलों के लोग एकत्र होते हैं । विभिन्न गाँवों के लोग अपने-अपने ध्वज सहित इनमें रास्ते में मिलते जाते हैं । मार्ग परम्परागत रुप से निश्चित है । घुप्प अंधेरी रात में ऊँची-ऊँची पर्वतमालाओं से मशालों के सहारे स्थानीय नर्तकों की टोलियाँ बढ़ती आती है इस मेले में भाग लेने । स्नान करने के बाद पहले से निर्धारित स्थान पर नर्तकों की टोलियाँ इस मेले को सजीव करने के लिए जुट जाती है ।

विषुवत् संक्रान्ति ही बिखौती नाम से जानी जाती है । इस दिन स्नान का विशेष महत्व है । मान्यता है कि जो उत्तरायणी पर नहीं नहा सकते, कुम्भ स्नान के लिए नहीं जा सकते उनके लिए इस दिन स्नान करने से विषों का प्रकोप नहीं रहता । अल्मोड़ा जनपद के पाली पछाऊँ क्षेत्र का यह एक प्रसिद्ध मेला है, इस क्षेत्र के लोग मेले में विशेष रुप से भाग लेते हैं ।

इस मेले की परम्परा कितनी पुरानी है इसका निश्चित पता नहीं है । बताया जाता है कि शीतला देवी के मंदिर में प्राचीन समय से ही ग्रामवासी आते थे तथा देवी को श्रद्धा सुमन अर्पित करने के बाद अपने-अपने गाँवों को लौट जाया करते थे । लेकिन एक बार किसी कारण दो दलों में खूनी युद्ध हो गया । हारे हुए दल के सरदार का सिर खड्ग से काट कर जिस स्थान पर गाड़ा गया वहाँ एक पत्थर रखकर स्मृति चिन्ह बना दिया गया । इसी पत्थर को ओड़ा कहा जाता है । यह पत्थर द्वारहाट चौक में रखा आज भी देखा जा सकता है । अब यह परम्परा बन गयी है कि इस ओड़े पर चोट मार कर ही आगे बढ़ा जा सकता है । इस परम्परा को 'ओड़ा भेटना' कहा जाता है । पहले कभी यह मेला इतना विशाल था के अपने अपने दलों के चिन्ह लिए ग्रामवासियों को ओड़ा भेंटने के लिए दिन-दिन भर इन्तजार करना पड़ता था । सभी दल ढोल-नगाड़े और निषाण से सज्जित होकर आते थे । तुरही की हुँकार और ढोल पर चोट के साथ हर्षोंल्लास से ही टोलियाँ ओड़ा भेंटने की र अदा करती थीं । लेकिन बाद में इसमें थोड़ा सुधारकर आल, गरख और नौज्यूला जैसे तीन भागों में सभी गाँवों को अलग-अलग विभाजित कर दिया गया । इन दलों के मेले में पहुँचने के क्रम और समय भी पूर्व निर्धारित होते हैं । स्याल्दे बिखौती के दिन इन धड़ों की सजधज अलग ही होती है । हर दल अपने-अपने परम्परागत तरीके से आता है और रस्मों को पूरा करता है । आल नामक घड़े में तल्ली-मल्ली मिरई, विजयपुर, पिनौली, तल्ली मल्लू किराली के कुल छ: गाँ है । इनका मुखिया मिरई गाँव का थौकदार हुआ करता है । गरख नामक घड़े में सलना, बसेरा, असगौली, सिमलगाँव, बेदूली, पैठानी, कोटिला, गवाड़ तथा बूँगा आदि लगभग चालीस गाँव सम्मिलित हैं । इनका मुखिया सलना गाँव का थोकदार हुआ करता है । नौज्यूला नामक तीसरा घड़ छतीना, बिदरपुर, बमनपुरु, सलालखोला, कौंला, इड़ा, बिठौली, कांडे, किरौलफाट आदि गाँव हैं । इनका मुखिया द्वाराघट का होता है । मेले का पहला दिन बाट्पुजे - मार्ग की पूजा या नानस्याल्दे कहा जाता है । बाट्पुजे का काम प्रतिवर्ष नौज्यूला वाले ही करते हैं । वे ही देवी को निमंत्रण भी देते हैं ।

ओड़ा भेंटने का काम उपराह्म में शुरु होता है । गरख-नौज्यूला दल पुराने बाजार में से होकर आता है । जबकि आल वाला दल पुराने बाजार के बीच की एक तंग गली से होता हुआ मेले के वांछित स्थान पर पहुँचता है । लेकिन इस मेले का पारम्परिक रुप अभी भी मौजूद है । लोक नृत्य और लोक संगीत से यह मेला अभी भी सजा संवरा है । मेले में भगनौले जैसे लोकगीत भी अजब समां बाँध देते हैं । बाजार में ओड़ा भेंटने की र को देखने और स्थानीय नृत्य को देखने अब पर्यटक भी दूर-दूर से आने लगे हैं । इसके बाद ही मेले का समापन होता है । 

कभी यह मेला व्यापार की दृष्टि से भी समृद्ध था । परन्तु पहाड़ में सड़कों का जाल बिछने से व्यापारिक स्वरुप समाप्त प्राय: है । मेले में जलेबी का रसास्वादन करना भी एक परम्परा जैसी बन गयी है । मेले के दिन द्वाराहाट बाजार जलेबी से भरा रहता है ।

इस मेले की प्रमुख विशेषता है कि पहाड़ के अन्य मेलों की तरह इस मेले से सांस्कृतिक तत्व गायब नहीं होने लगे हैं । पारम्परिक मूल्यों का निरन्तर ह्रास के बावजूद यह मेला आज भी किसी तरह से अपनी गरिमा बनाये हुए है ।
 




Om Tat Sat
                                                        
(Continued...)                                                                                                                              



(My humble  salutations to the great devotees ,  wikisources  and Pilgrimage tourist guide for the collection )

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