Holy
Pilgrimage – Temples in Uttarakhand
State
थल मेला
सीमान्त जनपद पिथौरागढ़ में जिला मुख्यालय से लगभग ५०
कि.मी. की दूरी पर थल नामक कस्बा है । इसी कस्बे में प्रतिवर्ष वैशाखी के अवसर
पर क्षेत्र का प्रसिद्ध व्यवसायिक मेला लगता है जो स्थान के अनुसार थल मेला
कहलाता है ।
थल में स्थित प्रसिद्ध शिव मंदिर ही इस मेले का केन्द्र है । थल के अन्य मंदिरों में बालेश्वर मंदिर की महिमा का वर्णन भी मिलता है । इस मंदिर में स्थित शिवलिंग का मेले के अवसर पर विशेष दर्शन प्राप्त किया जाता है । स्कन्द पुराण के यात्री को रामगंगा में स्नानकर बालीश तथा शिव के गणों का पूजन कर पावन पर्वत की ओर जाना चाहिए । आज भी थल यात्री मानसरोवर की ओर प्रस्थान करते हैं ।
यह भी कहा जाता है कि वर्ष १९४० में रामगंगा नदी के तट पर क्रान्तिवीरों ने जालियाँवाला दिवस मनाया था तभी से इस स्थान पर मेले के आयोजन का प्रथम सूत्रपात हुआ था तथा इस स्थान पर मेले की पृष्ठभूमि बनी । पहाड़ के अन्य मेलों की तरह यहाँ भी सांस्कृतिक और व्यापारिक गतिविधियाँ बाज़ी गयीं तथा कालान्तर में यह प्रसिद्ध सांस्कृतिक व व्यापारिक मेला बन गया ।
पहले यह मेला दस से पन्द्रह दिनों तक चला था । तीन दशक पहले तक तो मेला बीस दिनों से भी ज्यादा जुटता था ।
इस मेले के व्यापारिक महत्व के कारण दूर-दूर से व्यापारी अपना माल बेचने के लिए आया करते थे ।
मुंश्यारी, कपकोट, धारचूला जैसे हस्तकला के केन्द्र तब से इस मेले से सशक्त रुप से जुड़े हुए थे । किंरगाल की टोकरियाँ, मोस्तो, रस्से, डोके, कुर्सियाँ, कृषकों के लिए हल, कुदाल-कुटले से लेकर गृहणियों के काम में आने वाले सामान और चूड़ी-बिन्दी से लेकर टीकुली तक यहाँ बिकती थी । खरदी के ताँबे के बर्तन, भांग से बने हुए कुथले भी यहँ भारी मात्रा में बिकते थे । ऊनी वस्रों के लिए तो लोग साल-साल भर इस मेले की इंतजार करते । नेपाल के व्यापारी यहाँ खालें लेकर आते थे । उन्नत नस्ल के पशुओं की भी खरीद फरोख्त होती थी ।
इस मेले की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि भी समृद्ध थी । बैर, झोड़ा, चांचरी व हुड़के की थाप पर सामयिक गीतों से वादियाँ गूँजती रहतीं । काली कुमाऊँ, सोर घाटी, गंगोली, नेपाली तथा गोरखा साँस्कृतियों के कारण मेला अनूठा संगम स्थल बन गया था ।
आवागमन के साधनों में वृद्धि के कारण इस मेले का व्यापारिक पक्ष आब उतना सशक्त नहीं रहा जितना चार दशक पहले था । तिब्बत से व्यापार बन्द होने के कारण अब मेले में रौनक कम हो गयी है । बीस दिनों तक चलने वाला यह मेला मात्र चार दिनों तक के लिए ही सिमट कर रहा गया है । फिर भी कुमाऊँ की हस्तकला के यहाँ आज भी सजीव दर्शन होते हैं तथा लोकगीतों, भगलौल, झोड़े, चांचरी आदि के कारण मेले का कुछ-कुछ परम्परागत स्वरुप जीवित है ही ।
थल में स्थित प्रसिद्ध शिव मंदिर ही इस मेले का केन्द्र है । थल के अन्य मंदिरों में बालेश्वर मंदिर की महिमा का वर्णन भी मिलता है । इस मंदिर में स्थित शिवलिंग का मेले के अवसर पर विशेष दर्शन प्राप्त किया जाता है । स्कन्द पुराण के यात्री को रामगंगा में स्नानकर बालीश तथा शिव के गणों का पूजन कर पावन पर्वत की ओर जाना चाहिए । आज भी थल यात्री मानसरोवर की ओर प्रस्थान करते हैं ।
यह भी कहा जाता है कि वर्ष १९४० में रामगंगा नदी के तट पर क्रान्तिवीरों ने जालियाँवाला दिवस मनाया था तभी से इस स्थान पर मेले के आयोजन का प्रथम सूत्रपात हुआ था तथा इस स्थान पर मेले की पृष्ठभूमि बनी । पहाड़ के अन्य मेलों की तरह यहाँ भी सांस्कृतिक और व्यापारिक गतिविधियाँ बाज़ी गयीं तथा कालान्तर में यह प्रसिद्ध सांस्कृतिक व व्यापारिक मेला बन गया ।
पहले यह मेला दस से पन्द्रह दिनों तक चला था । तीन दशक पहले तक तो मेला बीस दिनों से भी ज्यादा जुटता था ।
इस मेले के व्यापारिक महत्व के कारण दूर-दूर से व्यापारी अपना माल बेचने के लिए आया करते थे ।
मुंश्यारी, कपकोट, धारचूला जैसे हस्तकला के केन्द्र तब से इस मेले से सशक्त रुप से जुड़े हुए थे । किंरगाल की टोकरियाँ, मोस्तो, रस्से, डोके, कुर्सियाँ, कृषकों के लिए हल, कुदाल-कुटले से लेकर गृहणियों के काम में आने वाले सामान और चूड़ी-बिन्दी से लेकर टीकुली तक यहाँ बिकती थी । खरदी के ताँबे के बर्तन, भांग से बने हुए कुथले भी यहँ भारी मात्रा में बिकते थे । ऊनी वस्रों के लिए तो लोग साल-साल भर इस मेले की इंतजार करते । नेपाल के व्यापारी यहाँ खालें लेकर आते थे । उन्नत नस्ल के पशुओं की भी खरीद फरोख्त होती थी ।
इस मेले की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि भी समृद्ध थी । बैर, झोड़ा, चांचरी व हुड़के की थाप पर सामयिक गीतों से वादियाँ गूँजती रहतीं । काली कुमाऊँ, सोर घाटी, गंगोली, नेपाली तथा गोरखा साँस्कृतियों के कारण मेला अनूठा संगम स्थल बन गया था ।
आवागमन के साधनों में वृद्धि के कारण इस मेले का व्यापारिक पक्ष आब उतना सशक्त नहीं रहा जितना चार दशक पहले था । तिब्बत से व्यापार बन्द होने के कारण अब मेले में रौनक कम हो गयी है । बीस दिनों तक चलने वाला यह मेला मात्र चार दिनों तक के लिए ही सिमट कर रहा गया है । फिर भी कुमाऊँ की हस्तकला के यहाँ आज भी सजीव दर्शन होते हैं तथा लोकगीतों, भगलौल, झोड़े, चांचरी आदि के कारण मेले का कुछ-कुछ परम्परागत स्वरुप जीवित है ही ।
उत्तरायणी मेला – बागेश्वर
यूँ तो मकर संक्रान्ति या उत्तरायणी के अवसर पर नदियों के
किनारे जहाँ-तहाँ मेले लगते हैं, लेकिन उत्तरांचल तीर्थ बागेश्वर में
प्रतिवर्ष आयोजित होने वाली उतरैणी की रौनक ही कुछ अलग है ।
उत्तराखंड में बागेश्वर की मान्यता 'तीर्थराज' की है । भगवान शंकर की इस भूमि में सरयू और गोमती का भौतिक संगम होने के अतिरिक्त लुप्त सरस्वती का भी मानस मिलन है । नदियों की इस त्रिवेणी के कारण ही उत्तरांचलवासी बागेश्वर को
तीर्थराज प्रयाग के समकक्ष मानते आये हैं ।
बागेश्वर का कस्बा पुराने इतिहास और सुनहरे अतीत को संजोये हुए है । स्कन्द पुराण के मानस खण्ड में कूमचिल के विभिन्न स्थानों का विशद् वर्णन उपलब्ध होता है । बागेश्वर के गौरव का भी गुणगान किया गया है । पौराणिक आख्यानों के अनुसार बागेश्वर शिव की लीला स्थली है । इसकी स्थापना भगवान शिव के गण चंडीस ने महादेव की इच्छानुसार 'दूसरी काशी' के रुप में की और बाद में शंकर-पार्वती ने अपना निवास बनाया । शिव की उपस्थिति में आकाश में स्वयंभू लिंग भी उत्पन्न हुआ जिसकी ॠषियों ने बागीश्वर रुप में अराधना की ।
स्कन्दपुराण के ही अनुसार मार्कण्डेय ॠषि यहाँ तपस्यारत थे । ब्रह्मर्षि वशिष्ठ जब देवलोक से विष्णु की मानसपुत्री सरयू को लेकर आये तो सार्कण्डेय ॠषि के कारण सरयू को आगे बढ़ने से रुकना पड़ा । ॠषि की तपस्या भी भंग न हो और सरयू को भी मार्ग मिल जाये, इस आशय से पार्वती ने गाय और शिव ने व्याघ्र का रुप धारण किया और तपस्यारत ॠषि से सरयू को मार्ग दिलाया । कालान्तर व्याघ्रेश्वर ही बागेश्वर बन गया ।
विष्णु की मानस पुत्री सरयू का स्नान पापियों को मोक्ष और सद्गति प्रदान करने वाला है । सरयू पापनाशक है । यम मार्ग को रोकने वाली सरयू के जल का पान करने से सोमपान का फल और स्नान अश्वमेघ का फल प्रदान करता है । बागेश्वर तीर्थ में मृत्यु से प्राणी शिव को प्राप्त होता है । इस प्रकार सूर्य तीर्थ तथा अग्नि तीर्थ के बीच स्थित विश्वेश्वर ही बागेश्वर है । सरयू का निर्मल जल सतोगुणी फल देता है । नदी की दूसरी धारा गोमती है जो अम्बरीष मुनि के आश्रम में पालित नन्दनी गाय के सींगों के प्रहार से उत्पन्न हुई । इसके जल को तमोगुण की वृद्धि करने वाला माना गया है । सरस्वती यहाँ केवल आस्था है । भौतिक रुप से जलधारा कही दृष्टिगोचर नहीं होती ।
बागेश्वर के सुनहरे अतीत में ही उतरैणी का भी गौरवमय पृष्ठ है । प्राप्त प्रमाणों के आधार पर माना जाता है कि चंद वंशीय राजाओं के शासनकाल में ही माघ मेले की नींव पड़ी थी । बागेश्वर की समस्त भूमि का स्वामित्व था । भूमि से उत्पन्न उपज का एक बड़ा भाग मंदिरों का रख-रखाव में खर्च होता था ।
चंद राजाओं ने ऐतिहासिक बागनाथ मंदिर में पुजारी नियुक्त किये । तब शिव की इस भूमि में कन्यादान नहीं होता था ।
मेले की सांकृतिक और धार्मिक पृष्ठभूमि का स्वरुप संगम पर नहाने का था । मकर स्नान एक महीने का होते था । सरयू के तट को सरयू बगड़ कहा जाता है । सरयू बगड़ के आक-पास स्नानार्थी माघ स्नान के लिए छप्पर डालना प्रारंभ कर देते थे । दूर-दराज के लोग मोहर मार्ग के अभाव में स्नान और कुटुम्बियों से मिलने की लालसा में पैदल रास्ता लगते । बड़-बूढ़े बताते हैं कि महीनों पूर्व से कौतिक में चलने का क्रम शुरु होता । धीरे-धीरे स्वजनों से मिलने के आह्मलाद ने हुड़के का थाप को ऊँचा किया । फलस्वरुप लोकगीतों और नृत्य की महफिलें जमनें लगीं . हुड़के की थाप पर कमर लचकाना, हाथ में हाथ डाल स्वजनों के मिलने की खुशी से नृत्य-गीतों के बोल का क्रम मेले का अनिवार्य अंग बनता गया । लोगों को आज भी याद है उस समय मेले की रातें किस तरह समां बाँध देती थी । प्रकाश की व्यवस्था अलाव जलाकर होती । काँपती सर्द रातों में अलाव जलते ही ढोड़े, चांचरी, भगनौले, छपेली जैसे नृत्यों का अलाव के चारों ओर स्वयं ही विस्तार होता जाता । तब बागेश्वर ही मेले में नृत्य की महफिलों से सजता रहता । दानपुर और नाकुरु पट्टी की चांचली होती । नुमाइश खेत में रांग-बांग होता जिसमें दारमा लोग अपने यहाँ के गीत गाते । सबके अपने-अपने नियत स्थान थे । नाचने गाने का सिलसिला जो एक बार शुरु होता तो चिड़ियों के चहकने और सूर्योदय से पहले खत्म ही नहीं होता । परम्परागत गायकी में प्रश्नोत्तर करने वाले बैरिये भी न जाने कहाँ-कहाँ से इकट्ठे हो जाते । काली कुमाऊँ, मुक्तेश्वर, रीठआगाड़, सोमेश्वर और कव्यूर के बैरिये झुटपूटा शुरु होने का ही जैसे इन्तजार करते । इनकी कहफिलें भी बस सूरज की किरणें ही उखाड़ पातीं । कौतिक आये लोगों की रात कब कट जाती मालूम ही नहीं पड़ता था ।
धीरे-धीरे धार्मिक और आर्थिक रुप से समृद्ध यह मेला व्यापारिक गतिविधियों का भी प्रमुख केन्द्र बन गया । भारत और नेपाल के व्यापारिक सम्बन्धों के कारण दोनों ही ओर के व्यापारी इसका इन्तजार तरते । तिब्बती व्यापारी यहाँ ऊनी माल, चँवर, नमक व जानवरों की खालें लेकर आते । भोटिया-जौहारी लोग गलीचे, दन, चुटके, ऊनी कम्बल, जड़ी बूटियाँ लेकर आते । नेपाल के व्यापारी लाते शिलाजीत, कस्तूरी, शेर व बाघ की खालें । स्थानीय व्यापार भी अपने चरमोत्कर्ष पर था । दानपुर की चटाइयाँ, नाकुरी के डाल-सूपे, खरदी के ताँबे के बर्तन, काली कुमाऊँ के लोहे के भदेले, गढ़वाल और लोहाघाट के जूते आदि सामानों का तब यह प्रमुख बाजार था । गुड़ की भेली से लेकर मिश्री और चूड़ी चरेऊ से लेकर टिकूली बिन्दी तक की खरीद फरोख्त होती । माघ मेला तब डेढ़ माह चलता । दानपुर के सन्तरों, केलों व बागेश्वर के गन्नों का भी बाजार लगता और इनके साथ ही साल भर के खेती के औजारों का भी मोल भाव होता । बीस बाईस वर्ष पहले तक करनाल, ब्यावर, लुधियाना और अमृतसर के व्यापारी यहाँ ऊनी माल खरीदने आते थे ।
मेले की इस समृद्ध पृष्ठभूमि का लाभ आजादी के दीवानों ने स्वराज की बात को आम जन मालस तक पहुँचाने में उठाया । बागेश्वर की उतरैणी आजादी से पहले ही राजनैतिक जन जागरण के लिए प्रयुक्त होने लगी थी । 'स्वराज हुनैर छु' - स्वराज्य होने वाला है, की भावना गाँव-गाँव में पहुँच रही थी । सरयू बगड़ राजनैतिक हलचलों का केन्द्र था । काँग्रेसी झंड़े के यहाँ लगते ही हलचल प्रारम्भ हो जातीं । झंडा फहरता देख लोगों के झुंड के झुंड आ इकट्ठे होते । मीटिंग प्रारम्भ हो जाती । जुलूस उठते । गाँव-गाँव से स्वयं सेवक आते । खद्दर का कुर्त्ता-पायजामा, सफेद टोपी उनकी पहचान होती । लोग विक्टर मोहन जोशी, बद्रीदत्त पाण्डे सरीखे-नेताओं को सुनने सरयू बगड़ का रुख करते । स्वतंत्रता की भावना को गाँव-गाँव तक पहुँचाने का यह सबसे श्रेष्ठ अवसर होता ।
अँग्रेजों ने कुली उतार एवं कुली बेगार जैसी अमानवीय प्रथायें पहड़वासियों पर लादी थी । एक समय था जब पहाड़ में अँग्रेजों को अपना सामान लादने के लिए कुली मिलना कठिन था । इस प्रथा के अन्तर्गत प्रत्येक गाँव में बोझा ढोने के लिए कुलियों के रजिस्टर बनाये गये थे । अँग्रेज साहब के आने पर ग्राम प्रधान या पटवारी 'घात' आवाज लगाता । जिसके नाम की आवाज़ पड़ती उसे अपना सारा काम छोड़कर जाना अनिवार्यता थी । बच्चे, बूढ़े, बीमार होने का भी प्रश्न न था । सन् १८५७ में कमिश्नर हैनरी रैमजे ने ४० कैदियों से क्षमादान की शर्त पर कुलियों का काम लिया था । लेकिन ज्यों-ज्यों अँग्रेज बढ़ते गये समस्या विकट होती गयी । तब ज़ोर ज़बरदस्ती से मैनुअल आॅफ़ गवर्नमेंट आडर्स में कुली प्रथा को निर्धारित किया गया । लेकिन भूमिहीन और कर्मचारियों को कुली नहीं माना गया । कुली का कार्य वह करता था जिसके पास जमीन होती । इस तरह कुमाऊँ का प्रत्येक भूमिपति अँग्रेजों की न में कुली था । यही नहीं कुली का काम करने वाले व्यक्ति को साहब के शिविरों में खाद्य पदार्थ इत्यादि भी ले जाने पड़ते । यह भार 'बर्दायश' कहलाता ।
सन् १९२९ में कुमाऊँ केसरी बद्रीदत्त पाण्डे के नेतृत्व में इसी सरयू बगड़ में कुली बेगार के रजिस्टरों को डुबोया गया । तब से लेकर आज तक राजनैतिक दल इस पर्व का उपयोग अपनी आवाज बुलन्द करने में करते हैं ।
उत्तराखंड में बागेश्वर की मान्यता 'तीर्थराज' की है । भगवान शंकर की इस भूमि में सरयू और गोमती का भौतिक संगम होने के अतिरिक्त लुप्त सरस्वती का भी मानस मिलन है । नदियों की इस त्रिवेणी के कारण ही उत्तरांचलवासी बागेश्वर को
तीर्थराज प्रयाग के समकक्ष मानते आये हैं ।
बागेश्वर का कस्बा पुराने इतिहास और सुनहरे अतीत को संजोये हुए है । स्कन्द पुराण के मानस खण्ड में कूमचिल के विभिन्न स्थानों का विशद् वर्णन उपलब्ध होता है । बागेश्वर के गौरव का भी गुणगान किया गया है । पौराणिक आख्यानों के अनुसार बागेश्वर शिव की लीला स्थली है । इसकी स्थापना भगवान शिव के गण चंडीस ने महादेव की इच्छानुसार 'दूसरी काशी' के रुप में की और बाद में शंकर-पार्वती ने अपना निवास बनाया । शिव की उपस्थिति में आकाश में स्वयंभू लिंग भी उत्पन्न हुआ जिसकी ॠषियों ने बागीश्वर रुप में अराधना की ।
स्कन्दपुराण के ही अनुसार मार्कण्डेय ॠषि यहाँ तपस्यारत थे । ब्रह्मर्षि वशिष्ठ जब देवलोक से विष्णु की मानसपुत्री सरयू को लेकर आये तो सार्कण्डेय ॠषि के कारण सरयू को आगे बढ़ने से रुकना पड़ा । ॠषि की तपस्या भी भंग न हो और सरयू को भी मार्ग मिल जाये, इस आशय से पार्वती ने गाय और शिव ने व्याघ्र का रुप धारण किया और तपस्यारत ॠषि से सरयू को मार्ग दिलाया । कालान्तर व्याघ्रेश्वर ही बागेश्वर बन गया ।
विष्णु की मानस पुत्री सरयू का स्नान पापियों को मोक्ष और सद्गति प्रदान करने वाला है । सरयू पापनाशक है । यम मार्ग को रोकने वाली सरयू के जल का पान करने से सोमपान का फल और स्नान अश्वमेघ का फल प्रदान करता है । बागेश्वर तीर्थ में मृत्यु से प्राणी शिव को प्राप्त होता है । इस प्रकार सूर्य तीर्थ तथा अग्नि तीर्थ के बीच स्थित विश्वेश्वर ही बागेश्वर है । सरयू का निर्मल जल सतोगुणी फल देता है । नदी की दूसरी धारा गोमती है जो अम्बरीष मुनि के आश्रम में पालित नन्दनी गाय के सींगों के प्रहार से उत्पन्न हुई । इसके जल को तमोगुण की वृद्धि करने वाला माना गया है । सरस्वती यहाँ केवल आस्था है । भौतिक रुप से जलधारा कही दृष्टिगोचर नहीं होती ।
बागेश्वर के सुनहरे अतीत में ही उतरैणी का भी गौरवमय पृष्ठ है । प्राप्त प्रमाणों के आधार पर माना जाता है कि चंद वंशीय राजाओं के शासनकाल में ही माघ मेले की नींव पड़ी थी । बागेश्वर की समस्त भूमि का स्वामित्व था । भूमि से उत्पन्न उपज का एक बड़ा भाग मंदिरों का रख-रखाव में खर्च होता था ।
चंद राजाओं ने ऐतिहासिक बागनाथ मंदिर में पुजारी नियुक्त किये । तब शिव की इस भूमि में कन्यादान नहीं होता था ।
मेले की सांकृतिक और धार्मिक पृष्ठभूमि का स्वरुप संगम पर नहाने का था । मकर स्नान एक महीने का होते था । सरयू के तट को सरयू बगड़ कहा जाता है । सरयू बगड़ के आक-पास स्नानार्थी माघ स्नान के लिए छप्पर डालना प्रारंभ कर देते थे । दूर-दराज के लोग मोहर मार्ग के अभाव में स्नान और कुटुम्बियों से मिलने की लालसा में पैदल रास्ता लगते । बड़-बूढ़े बताते हैं कि महीनों पूर्व से कौतिक में चलने का क्रम शुरु होता । धीरे-धीरे स्वजनों से मिलने के आह्मलाद ने हुड़के का थाप को ऊँचा किया । फलस्वरुप लोकगीतों और नृत्य की महफिलें जमनें लगीं . हुड़के की थाप पर कमर लचकाना, हाथ में हाथ डाल स्वजनों के मिलने की खुशी से नृत्य-गीतों के बोल का क्रम मेले का अनिवार्य अंग बनता गया । लोगों को आज भी याद है उस समय मेले की रातें किस तरह समां बाँध देती थी । प्रकाश की व्यवस्था अलाव जलाकर होती । काँपती सर्द रातों में अलाव जलते ही ढोड़े, चांचरी, भगनौले, छपेली जैसे नृत्यों का अलाव के चारों ओर स्वयं ही विस्तार होता जाता । तब बागेश्वर ही मेले में नृत्य की महफिलों से सजता रहता । दानपुर और नाकुरु पट्टी की चांचली होती । नुमाइश खेत में रांग-बांग होता जिसमें दारमा लोग अपने यहाँ के गीत गाते । सबके अपने-अपने नियत स्थान थे । नाचने गाने का सिलसिला जो एक बार शुरु होता तो चिड़ियों के चहकने और सूर्योदय से पहले खत्म ही नहीं होता । परम्परागत गायकी में प्रश्नोत्तर करने वाले बैरिये भी न जाने कहाँ-कहाँ से इकट्ठे हो जाते । काली कुमाऊँ, मुक्तेश्वर, रीठआगाड़, सोमेश्वर और कव्यूर के बैरिये झुटपूटा शुरु होने का ही जैसे इन्तजार करते । इनकी कहफिलें भी बस सूरज की किरणें ही उखाड़ पातीं । कौतिक आये लोगों की रात कब कट जाती मालूम ही नहीं पड़ता था ।
धीरे-धीरे धार्मिक और आर्थिक रुप से समृद्ध यह मेला व्यापारिक गतिविधियों का भी प्रमुख केन्द्र बन गया । भारत और नेपाल के व्यापारिक सम्बन्धों के कारण दोनों ही ओर के व्यापारी इसका इन्तजार तरते । तिब्बती व्यापारी यहाँ ऊनी माल, चँवर, नमक व जानवरों की खालें लेकर आते । भोटिया-जौहारी लोग गलीचे, दन, चुटके, ऊनी कम्बल, जड़ी बूटियाँ लेकर आते । नेपाल के व्यापारी लाते शिलाजीत, कस्तूरी, शेर व बाघ की खालें । स्थानीय व्यापार भी अपने चरमोत्कर्ष पर था । दानपुर की चटाइयाँ, नाकुरी के डाल-सूपे, खरदी के ताँबे के बर्तन, काली कुमाऊँ के लोहे के भदेले, गढ़वाल और लोहाघाट के जूते आदि सामानों का तब यह प्रमुख बाजार था । गुड़ की भेली से लेकर मिश्री और चूड़ी चरेऊ से लेकर टिकूली बिन्दी तक की खरीद फरोख्त होती । माघ मेला तब डेढ़ माह चलता । दानपुर के सन्तरों, केलों व बागेश्वर के गन्नों का भी बाजार लगता और इनके साथ ही साल भर के खेती के औजारों का भी मोल भाव होता । बीस बाईस वर्ष पहले तक करनाल, ब्यावर, लुधियाना और अमृतसर के व्यापारी यहाँ ऊनी माल खरीदने आते थे ।
मेले की इस समृद्ध पृष्ठभूमि का लाभ आजादी के दीवानों ने स्वराज की बात को आम जन मालस तक पहुँचाने में उठाया । बागेश्वर की उतरैणी आजादी से पहले ही राजनैतिक जन जागरण के लिए प्रयुक्त होने लगी थी । 'स्वराज हुनैर छु' - स्वराज्य होने वाला है, की भावना गाँव-गाँव में पहुँच रही थी । सरयू बगड़ राजनैतिक हलचलों का केन्द्र था । काँग्रेसी झंड़े के यहाँ लगते ही हलचल प्रारम्भ हो जातीं । झंडा फहरता देख लोगों के झुंड के झुंड आ इकट्ठे होते । मीटिंग प्रारम्भ हो जाती । जुलूस उठते । गाँव-गाँव से स्वयं सेवक आते । खद्दर का कुर्त्ता-पायजामा, सफेद टोपी उनकी पहचान होती । लोग विक्टर मोहन जोशी, बद्रीदत्त पाण्डे सरीखे-नेताओं को सुनने सरयू बगड़ का रुख करते । स्वतंत्रता की भावना को गाँव-गाँव तक पहुँचाने का यह सबसे श्रेष्ठ अवसर होता ।
अँग्रेजों ने कुली उतार एवं कुली बेगार जैसी अमानवीय प्रथायें पहड़वासियों पर लादी थी । एक समय था जब पहाड़ में अँग्रेजों को अपना सामान लादने के लिए कुली मिलना कठिन था । इस प्रथा के अन्तर्गत प्रत्येक गाँव में बोझा ढोने के लिए कुलियों के रजिस्टर बनाये गये थे । अँग्रेज साहब के आने पर ग्राम प्रधान या पटवारी 'घात' आवाज लगाता । जिसके नाम की आवाज़ पड़ती उसे अपना सारा काम छोड़कर जाना अनिवार्यता थी । बच्चे, बूढ़े, बीमार होने का भी प्रश्न न था । सन् १८५७ में कमिश्नर हैनरी रैमजे ने ४० कैदियों से क्षमादान की शर्त पर कुलियों का काम लिया था । लेकिन ज्यों-ज्यों अँग्रेज बढ़ते गये समस्या विकट होती गयी । तब ज़ोर ज़बरदस्ती से मैनुअल आॅफ़ गवर्नमेंट आडर्स में कुली प्रथा को निर्धारित किया गया । लेकिन भूमिहीन और कर्मचारियों को कुली नहीं माना गया । कुली का कार्य वह करता था जिसके पास जमीन होती । इस तरह कुमाऊँ का प्रत्येक भूमिपति अँग्रेजों की न में कुली था । यही नहीं कुली का काम करने वाले व्यक्ति को साहब के शिविरों में खाद्य पदार्थ इत्यादि भी ले जाने पड़ते । यह भार 'बर्दायश' कहलाता ।
सन् १९२९ में कुमाऊँ केसरी बद्रीदत्त पाण्डे के नेतृत्व में इसी सरयू बगड़ में कुली बेगार के रजिस्टरों को डुबोया गया । तब से लेकर आज तक राजनैतिक दल इस पर्व का उपयोग अपनी आवाज बुलन्द करने में करते हैं ।
कुमाऊँ के कुछ अन्य प्रसिद्ध मेले
१. कालसन का मेला - कालसन
का मेला नैनीताल जनपद के टनकपुर के पास सूखीढ़ाँग व श्यामलाताल की पावन भूमि में प्रतिवर्ष आयोजित
किया जाता है । यह स्थान टनकपुर से २६ कि.मी.
की दूरी पर है । कालसन के बारे में स्थानीय लोगों में तरह-तरह की किवदन्तियाँ प्रचलित हैं । कहा
जाता है कि कालसन का मंदिर कभी अन्नापूर्णा शिखर के पास शारदा नदी के
किनारे बना हुआ था जिसे बाद में ग्रामवासियों ने सुरक्षा की दृष्टि से निगाली
गाँव के पास स्थानान्तरित कर दिया । जहाँ पर ग्रामवासियों ने कालसन देवता को
स्थानान्तरित किया था, ग्रामवासियों
की श्रद्धा
के वशीभूत होकर कालसन भी वहीं श्यामवर्णी लिंग रुप में प्रकट हो गये परन्तु अपनी प्राचीन जगह
में उन्होंने लोगों द्वारा अर्पित फल-फूल और सामान को पत्थरों के ढ़ेर में
बदल दिया । कहा जाता है कि कालसन देवता महाकाली के उपासक थे ।
वर्तमान में यहाँ देवता थान में धनुषवाण, त्रिशुल आदि का ढेर है । सम्भवत: यह ढेर यहाँ इन वस्तुओं को देवता को अपंण करने की परम्परा के कारण है । इन त्रिशुलों में लोग दीप जलाते हैं तथा काले रंग का वस्र भी बाँधते हैं । उत्तराखंड के अन्य मन्दिरों की तरह यहाँ भी घंटियाँ, ध्वजा आदि चढ़ाने की परम्परा है । भूत, प्रेत आदि बाधाओं से पीड़ित व्यक्ति यहाँ ईलाज के लिए भी लाये जाते हैं ।
पूर्णिमा को यहाँ मेला लगता है । इस मेले में लोग कालसन देवता से मनौतियाँ मनाने, अपनी इच्छाओं की पूर्ति हेतु प्रार्थना करने आते हैं तथा देवता को नारियल इत्यादि अर्पित करते हैं । पहले यह मेला एक हफ्ते तक चलाता था ।
२. हरेला मेला - हरेला पर्व के अवसर पर भीमताल में लगने वाला हरेला मेला भी कभी इस क्षेत्र का प्रसिद्ध मेला था । कहा जाता है कि यह मेला इतिहास प्रसिद्ध मेला रहा है जिसमें कभी पचास हजार से अधिक लोग भाग लेते थे । पहले यह मेला हरियाली खेत में लगता था । तब इस मेले की अवधि सात दिन की होती थी । सन् १९७० के बाद यह मेला रामलीला मैदान में लगने लगा है । एक आध बार यह मेला भीमताल झील के किनारे भी आयोजित किया गया है । पूर्व में यह मेला सांस्कृतिक और व्यापारिक दोनों ही दृष्टियों से सम्पन्न था । तब इस मेले में कपड़ों की दूकानें, मिठाईयाँ, रोजमर्रा की आवश्यक वस्तुओं आदि की खरीद फरोख्त होती थी । भगनौल, झोड़े आदि गीतों की हुड़के की थाप पर स्वर लहरियाँ गूँजती थी । अब तो इस मेले की भी चमक फीकी पड़ती जा रही है ।
इन मेलों के अतिरिक्त भी कुमाऊँ अंचल में अनेक मेले लगते हैं । इनमें दारमा क्षेत्र में व्यासपट्टी के लोग प्रतिवर्ष भद्रपद की पूर्णिमा के अवसर पर महर्षि व्यास की अर्चना करते हैं । मनीला के मैदान में इस अवसर पर विशेष आयोजन किया जाता है । दरकोटा और जलथ देवी के मेले भी बहुत प्रसिद्ध हैं । गुम देश में चैतोगा नाम से विख्यात मेला लगता है ।
मानेश्वर का मेला धार्मिक मनौती मानने के लिए प्रसिद्ध है । यह स्थान चम्पावत के पास है । गढ़केदार में लगने वाले मेले में कार्तिक मास में नि:संतान महिलायें जागेश्वर की ही तरह रातभर जलता दीपक हाथ में लेकर शिव अर्चन करती हैं । धार्मिक विश्वास है कि रातभर हाथ में दीपक लेकर पूजन करने से शिव प्रसन्न होते हैं तथा सन्तान प्राप्त होती है । गिर के कौतिक नाम से प्रसिद्ध मेला तल्ला सल्ट क्षेत्र में लगता है । उत्तरायणी के दिन सम्पन्न होने वाले इस मेले में नजदीकी गाँव रोग खेल खेलते हैं ।
३. जिया रानी का मेला - रानी बाग - उत्तरायणी में ही प्रतिवर्ष रानीबाग में
इतिहास प्रसिद्ध बीरांगना जिया रानी के नाम पर जिया रानी का मेला लगता है । रानीबाग, काठगोदाम से पाँच कि.मी. दूर अल्मोड़ा मार्ग पर बसा है । रानीबाग में कव्यूरी राजा धामदेव और ब्रह्मदेव की माता जियारानी का बाग था । कहते हैं कि यहाँ जिया रानी ने एक गुफा में तपस्या की थी । रात्रि में जिया रानी का जागर लगता है । कव्यूरपट्टी के गाँव से वंशानुगत जगरियें औजी, बाजगी, अग्नि और ढोलदमुह के साथ कव्यूरी राजाओं की वंशावलि तथा रानीबाग के युद्ध में जिया रानी के अद्भूत शौर्य की गाथा गाते हैं । जागरों में वर्णन मिलता है कि कव्यूरी सम्राट प्रीतमदेव ने समरकंद के सम्राट तैमूरलंग की विश्वविजयी सेना को शिवालिक की पहाड़ी में सन् १३९८ में परास्त कर जो विजयोत्सव मनाया उसकी छाया तथा अनगूंज चित्रश्वर रानीबाग के इस मेले में मिलती है । जिया रानी इस वीर की पत्नी थीं ।
उत्तरायणी के अवसर पर यहाँ एक ओर स्नान चलता है तो दूसरी ओर जागर, बैर इत्यादि को सुनने वालों की भीड़ रहती है ।
अन्य ऐतिहासिक मेले एवं पर्व -
उपरोक्त अति प्रसिद्ध मेलों के अतिरिक्त भी कुमाऊँ में स्थान-स्थान पर मेलों एवं उत्सवों का आयोजन होता है । इनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है –
वर्तमान में यहाँ देवता थान में धनुषवाण, त्रिशुल आदि का ढेर है । सम्भवत: यह ढेर यहाँ इन वस्तुओं को देवता को अपंण करने की परम्परा के कारण है । इन त्रिशुलों में लोग दीप जलाते हैं तथा काले रंग का वस्र भी बाँधते हैं । उत्तराखंड के अन्य मन्दिरों की तरह यहाँ भी घंटियाँ, ध्वजा आदि चढ़ाने की परम्परा है । भूत, प्रेत आदि बाधाओं से पीड़ित व्यक्ति यहाँ ईलाज के लिए भी लाये जाते हैं ।
पूर्णिमा को यहाँ मेला लगता है । इस मेले में लोग कालसन देवता से मनौतियाँ मनाने, अपनी इच्छाओं की पूर्ति हेतु प्रार्थना करने आते हैं तथा देवता को नारियल इत्यादि अर्पित करते हैं । पहले यह मेला एक हफ्ते तक चलाता था ।
२. हरेला मेला - हरेला पर्व के अवसर पर भीमताल में लगने वाला हरेला मेला भी कभी इस क्षेत्र का प्रसिद्ध मेला था । कहा जाता है कि यह मेला इतिहास प्रसिद्ध मेला रहा है जिसमें कभी पचास हजार से अधिक लोग भाग लेते थे । पहले यह मेला हरियाली खेत में लगता था । तब इस मेले की अवधि सात दिन की होती थी । सन् १९७० के बाद यह मेला रामलीला मैदान में लगने लगा है । एक आध बार यह मेला भीमताल झील के किनारे भी आयोजित किया गया है । पूर्व में यह मेला सांस्कृतिक और व्यापारिक दोनों ही दृष्टियों से सम्पन्न था । तब इस मेले में कपड़ों की दूकानें, मिठाईयाँ, रोजमर्रा की आवश्यक वस्तुओं आदि की खरीद फरोख्त होती थी । भगनौल, झोड़े आदि गीतों की हुड़के की थाप पर स्वर लहरियाँ गूँजती थी । अब तो इस मेले की भी चमक फीकी पड़ती जा रही है ।
इन मेलों के अतिरिक्त भी कुमाऊँ अंचल में अनेक मेले लगते हैं । इनमें दारमा क्षेत्र में व्यासपट्टी के लोग प्रतिवर्ष भद्रपद की पूर्णिमा के अवसर पर महर्षि व्यास की अर्चना करते हैं । मनीला के मैदान में इस अवसर पर विशेष आयोजन किया जाता है । दरकोटा और जलथ देवी के मेले भी बहुत प्रसिद्ध हैं । गुम देश में चैतोगा नाम से विख्यात मेला लगता है ।
मानेश्वर का मेला धार्मिक मनौती मानने के लिए प्रसिद्ध है । यह स्थान चम्पावत के पास है । गढ़केदार में लगने वाले मेले में कार्तिक मास में नि:संतान महिलायें जागेश्वर की ही तरह रातभर जलता दीपक हाथ में लेकर शिव अर्चन करती हैं । धार्मिक विश्वास है कि रातभर हाथ में दीपक लेकर पूजन करने से शिव प्रसन्न होते हैं तथा सन्तान प्राप्त होती है । गिर के कौतिक नाम से प्रसिद्ध मेला तल्ला सल्ट क्षेत्र में लगता है । उत्तरायणी के दिन सम्पन्न होने वाले इस मेले में नजदीकी गाँव रोग खेल खेलते हैं ।
३. जिया रानी का मेला - रानी बाग - उत्तरायणी में ही प्रतिवर्ष रानीबाग में
इतिहास प्रसिद्ध बीरांगना जिया रानी के नाम पर जिया रानी का मेला लगता है । रानीबाग, काठगोदाम से पाँच कि.मी. दूर अल्मोड़ा मार्ग पर बसा है । रानीबाग में कव्यूरी राजा धामदेव और ब्रह्मदेव की माता जियारानी का बाग था । कहते हैं कि यहाँ जिया रानी ने एक गुफा में तपस्या की थी । रात्रि में जिया रानी का जागर लगता है । कव्यूरपट्टी के गाँव से वंशानुगत जगरियें औजी, बाजगी, अग्नि और ढोलदमुह के साथ कव्यूरी राजाओं की वंशावलि तथा रानीबाग के युद्ध में जिया रानी के अद्भूत शौर्य की गाथा गाते हैं । जागरों में वर्णन मिलता है कि कव्यूरी सम्राट प्रीतमदेव ने समरकंद के सम्राट तैमूरलंग की विश्वविजयी सेना को शिवालिक की पहाड़ी में सन् १३९८ में परास्त कर जो विजयोत्सव मनाया उसकी छाया तथा अनगूंज चित्रश्वर रानीबाग के इस मेले में मिलती है । जिया रानी इस वीर की पत्नी थीं ।
उत्तरायणी के अवसर पर यहाँ एक ओर स्नान चलता है तो दूसरी ओर जागर, बैर इत्यादि को सुनने वालों की भीड़ रहती है ।
अन्य ऐतिहासिक मेले एवं पर्व -
उपरोक्त अति प्रसिद्ध मेलों के अतिरिक्त भी कुमाऊँ में स्थान-स्थान पर मेलों एवं उत्सवों का आयोजन होता है । इनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है –
सोमेश्वर (अल्मोड़ा)
देवस्थल - अल्मोड़ा
पाताल देवी - अल्मोड़ा
जागनाथ - जागेश्वर - अल्मोड़ा
बागनाथ - बागेश्वर
२. मकर संक्रांति
कपिलेश्वर पट्टी बिसोद
पंचेश्वर पट्टी सौं - पिथौरागढ़
३. कार्तिक पूर्णिमा
पिनाकेश्वर पट्टी बीरारो
शिखर भनार - दानपुर
४. मेष संक्रांति
बेतालेश्वर - अल्मोड़ा
वृद्ध केदार - अल्मोड़ा
५. मिथुन चतुर्दशी
भीमेश्वर - भीमता (नैनीताल)
६. फागुन चतुर्दशी
पाताल भुवनेश्वर पट्टी बड़ाऊ (पिथौरागढ़:
पावनेश्वर - डीडीहाट (पिथौरागढ़)
बैजनाथ - जनपज अल्मोड़ा
गणनाथ - अल्मोड़ा
श्रावण चतुर्दशी - जागेश्वर - अल्मोड़ा
बागनाथ - बागेश्वर
७. भादों तृतीया
थल केदार (पिथौरागढ़)
८. भादों चतुर्दशी
भागलिंग (पिथौरागढ़)
९. कर्क संक्रांति
बालेश्वर मंदिर - चम्पावत
१०. आषाढ़ सप्तमी
घटकू (पिथौरागढ़)
११. नागपंचमी
उग्र रुद्र, नाकुरी (पिथौरागढ़)
१२. आषाढ़ तथा चैत्र अष्टमी
दूनागिरी
नैथाना देवी - जनपद अल्मोड़ा
१३. कृष्ण जन्माष्टमी - मिरतोला - अल्मोड़ा
उत्तराखण्ड में ताम्र शिल्प
देश के
विभिन्न भागों से विशेष रूप से उत्तर प्रदेश से ताम्रयुगीन उपकरण वर्ष 1822 से ही प्रकाश में आते रहे हैं।
किन्तु उनकी ओर ध्यान 1905 और 1907 में सर्वप्रथम आगरा अवध प्रांत
के जिला मजिस्ट्रेट विसेंट स्मिथ ने ही दिया। उस
समय तक जो ताम्रायुध मिले थे उनकी संशिप्त सूची प्रस्तुत करते हुए उन्होनें इस देश
में सर्वप्रथम ताम्रयुग की कल्पना की। वर्ष1915 में हरदोई और बुलन्दशहर जिलों
के आसपास कुछ और ताम्रआयुध मिले परन्तु इनके सम्बन्ध में में विश्वविख्यात पुरातत्ववेत्ता डा0 बी0बी0लाल ने
एक संशिप्त लेख लिखकर इस विषय की समस्याओं पर प्रकाश डाला और लोगों का ध्यान
आकर्षित किया। उत्तर प्रदेश में बदायॅू, इटावा, बुलन्दशहर, एटा और शिवराजपुर से ताम्र उपकरण
प्राप्त हो चुके हैं। परन्तु इनकी सीमा रेखा का विस्तार पर्वतीय भूभाग की ओर नहीं
हो पा रहा था। पहले ये अनुमान लगाये जाते थे कि उत्तर प्रदेश में ताम्रयुगीन उपकरण केवल उन क्षेत्रों में मिलते हैं जो गंगाकांठे वाले क्षेत्र अथवा सपाट
भूभाग वाले मैदानी इलाके हैं। कुमाऊँ तथा गढ़वाल मंडलों पहले मिलने वाले शैलचित्रों से यद्यपि यह सम्भावना व्यक्त की गयी थी
कि इस क्षेत्र में प्राचीन काल से ही मानव विचरण करता था तथा ताम्रसंचयी संस्कृति
जैसी किसी संस्कृति के यहां पल्लवित होने की केवल कल्पना ही की जा सकती हैं। लेकिन हाल ही में श्रंखलाबध्दरूप से मिलने वाले ताम्रयुगीन उपकरणों ने कुमाऊँ मंडल में में ताम्रसंयची
संस्कृति के पल्लवित रहे होने की अवधारणा को स्पष्ट रूप से पुष्ट किया है। ।
ताम्र
संस्कृति का प्रथम उपकरण कुमाऊँ में सर्वप्रथम वर्ष 1986में एक ताम्र मानवाकृति के रूप में इस
लेखक को हल्द्वानी से प्राप्त हुआ। श्री शिवराज सरन जिनके यहां यह मानवाकृति
प्राप्त हुई है को चालीस के दशक में कोई व्यक्ति अल्मोड़ा नगर में कबाड़ के रूप में
इसे बेच गया था। यह उपकरण मानवाकृति सदृश है। इस खोज के बाद पुराविदों की सहज
जिज्ञासा इस ओर और अधिक हुई तथा कुमाऊँ मंडल में ताम्रसंचयी संस्कृति की अवधारणा
को पुष्ट करने के निश्चित प्रयास प्रारभ्म हुए। हल्द्वानी से प्राप्त
ताम्रमानवाकृति का मिलना इस क्षेत्र के पुरातत्व के लिए अद्भुद घटना थी। इस उपकरण
की खोज के बाद इस लेखक ने यह सम्भावना व्यक्त की थी कि आने वाले वर्षौ में ऐसी और
ताम्र मानवाकृतियां और भी मिल सकती हैं जो इस क्षेत्र में ताम्र संस्कृति के
विद्यमान रहने की अवधारणा को निश्चित ही पुष्ट करेंगी। इसके कुछ वर्ष बाद ही 1989में बनकोट जिला पिथौरागढ़ में आठ ऐसी मानवाकृतियां प्राप्त हुईं। वर्ष 1999 में नैनीपातल से पाँच अन्य
ताम्रमानवाकृतियां भी प्राप्त हुई । इस प्रकार ताम्रसंचयी संस्कृति के उपकरणों के
रूप में कुमाऊँ मंडल में अभी तक चौदह ताम्र मानवाकृतियां प्राप्त हो चुकी हैं। इनमें से एक हल्द्वानी से, आठ बनकोट एवं पांच नैनीपातल से प्राप्त
हुई हैं।
हल्द्वानी
से प्राप्त मानवाकृति गंगाकांठे से मिलने वाली मानवाकृतियों जैसी ही हैं। इस आकृति
का उपरी भाग सिर की तरह गोल हैं नीचे दो लम्बे पैर हैं। लम्बाई 40 सेमी से ज्यादा है। जबकि वक्ष
सहित दोनों किनारे 38 सेमी लम्बे हैं। आकृति के मध्य की
चौड़ाई 9.36 सेमी है। लेकिन इस आकृति में वास्तविक
हाथ पैर के कोई निशान मौजूद नहीं है । ये आकृति तांबे को पीट पीट कर बनाई गयी
होगी। जिसके किनारे चपटे और हल्के से धारदार हैं। इसी प्रकार की पांच मानवाकृतियां
वर्ष 1999मे नैनीपातल सें प्राप्त हुई। बनकोट जिला
पिथौरागढ़ से प्राप्त मानवाकृतियां पत्थर निकालने वाली एक खान के पास से प्राप्त
हुई। जो जमीन के अन्दर एक के उपर एक रखी हुई थीं। इनको एक पटाल से ढककर रखा गया
था। इनकी चौड़ाई बाहुओं सहित लगभग 14 से 30.5 तक, लम्बाई 14 सेमी0से 24 सेमी तक तथा मोटाई अधिकतम 3 सेमी तथा वजन 2.40किग्रा से3.30 किग्रा तक है। नैनीपातल में
प्राप्त मानवाकृतियाें की चौडाई एक भुजा से दूसरी भुजा तक 27 से 32 सेमी के मध्य तथा शीर्ष से पांव
तक 16सेमी से 22 सेमी के मध्य रही है इनका भार
भी 1 से10 किलों ग्राम के मध्य है।
जहां तक
कुमाऊँ मंडल से मिलने वाली मानवाकृतियोंकी संरचना का प्रश्न है इन सभी का उपरी भाग सिर
की तरह गोल है। सिर के नीचे दोनों ओर भीतर की
ओर मुड़े हुए हाथ और उनके नीचे दो लम्बे नुकीले पैर हैं। इनमें वास्तविक हाथ पैर के
कोई निशान मौजूद नही हैं। बाजारों में शनि दान के लिए जिस प्रकार की प्रतिमा लेकर
दान मांगने वाले आते है, लगभग वैसा ही इनका रूप होता है, परन्तु मोटाई में अवश्य अन्तर होता है।
इनके सिर का किनारा धारदार और पतला होता है। हल्द्वानी से प्राप्त मानवाकृति के
हाथ दोनों ओर अन्दर की ओर घूमें हुए हैं जबकि शेष मानवाकृतियों के हाथ सीधे और
सपाट है। पैर भी किंचित मोटाई लिए हुए है। अभी तक जो जो उपकरण पाये गये हैं। उनकी
लम्बाई लगभग 40सेमी तक मिली है। हल्द्वानी में प्राप्त
मानवाकृति तो ढलवां न होकर पीट पीट कर बनायी गयी हैं शेष मिलने वाली मानवाकृतियां वनकोट और
नैनीपातल की है जो ढलवां बनायी गयी हैं। पहले जो ताम्रयुगीन उपकरण मिले थे उनकी
परिधि सहारनपुर ,बिजनौर, मुरादाबाद और बदायू से आगे नहीं बढ सकी
थी। इस क्षेत्र में पहले मिलने वाले शैलचित्रों ने हालांकि यह सम्भावना व्यक्त की
थी कि यहां प्राचीन काल से ही मानव विचरण करता था तथा ताम्रयुग जैसी किसी सभ्यता
की कल्पना भी की जा सकती हैं लेकिन हाल ही में उत्तरांचल में मिलने वाली
ताम्रमानवाकृतियों ने इतिहासकारों की धारणा को स्पष्ट रूप से पुष्ट किया है।
परन्तु यह तो निश्चित है कि पर्वतीय
क्षेत्र में तांबे
की खाने पहले ही से मौजूद रही
हैं। जिनसे पूर्व में भी
तांबा निकाला जाता था। इससे
प्रतीत होता है कि तत्कालीन ताम्रप्रयोक्ता अपने प्रयोग
के लिए तांबां निजी खानों से ही
निकालते होंगे। इतना ही नहीं तांबे के निष्कर्षण की
तकनीकि में भी वे पांरगत थे।
हल्द्वानी में प्राप्त मानवाकृति तो ढलवां न होकर पीट
पीट कर बनायी गयी हैं। शेष मिलने वाली वनकोट और नैनीपातल की है। जो
ढलवां बनायी गयी है। ऐसा प्रतीत
होता है कि ये धातु को गलाने,पीट-पीट कर आकृति
देने, उनको चौड़ा करने आदि धातु कर्म में भी प्रवीण
थे।
हल्द्वानी
से प्राप्त मानवाकृति को छोड़कर शेष सभी मानवाकृतियां जमीन के नीचे से दबी मिली
हैं। यद्यपि कुछ विद्वानों ने पूर्व में अपना यह अभिमत अवश्य दिया था कि पर्वतीय क्षेत्रों में प्रचुर
मात्रा में तांबे के उपलब्ध होने के कारण सम्भवत: गंगाघाटी की ताम्रसंस्कृति के
वाहकों को भी तांबा निर्यात यही से किया जाता होगा। परन्मु इसके लिए कोई स्पष्ट
प्रमाण नहीं मिल पाये। यह अवश्य था कि जिन मैदानी इलाकों के आसपास में पूर्व में
ताम्रमानवाकृतियां प्राप्त हुई है वहां तांबे की खानें उपलब्ध नहीं थीं। डा0 एम पी जोशी सरीखे विद्वानों ने
अभिमत दिया कि स्थानीय टम्टा सम्भवत: ताम्रसंचयी संस्कृति के रचियताओं के वंशज
हैं। इस लेखक का मानना है कि आगरी लोगों ने ही सर्वप्रथम खानों से ताम्रअयस्क को
निकालना प्रारम्भ किया तथा स्थानीय आगरी जाति अथवा टम्टा जाति के लोगों के पूर्वज
ही वे लोग रहे होंगे जिन्होने सर्वप्रथम स्थानीय खानों से तांबा इत्यादि धातुओं को
निकाल कर इन खानों का व्यवसायिक दोहन प्रारम्भ किया होगा। डा0 डी पी अग्रवाल ने अभिमत दिया है कि आगर शब्द तांबे की खानों के लिए
प्रयुक्त हुआ है। ऐसा प्रतीत होता है कि आगरी तथा टम्टा जाति के लोग पूर्व से ही
खानों से धातु निष्कर्षण की तकनीकि में प्रवीण थे। इस क्षेत्र में सम्भवत: टम्टा
ही वह जाति है जो ताम्रकला में सिध्दहस्त ही नहीं है अपितु धातु निष्कर्षण की
तकनीक में दक्ष एवं अयस्क को अपनी जरूरत के धातुकर्म के अनुसार उपचारित कर धातुरूप में
परिवर्तित कर सकते हैं। ऐसा कोई साक्ष्य उपलब्ध नहीं है जिनसे लगता हो कि ये बाहर
से आयात की गयी है यद्यपि उ प्र से भी
मानवाकृतियां प्राप्त हुई हैं लेकिन एक साथ इतनी मानवाकृतियां कहीं से प्राप्त
नहीं हुई है।
डा0 यशोधर मठपाल सरीखें विद्वानों ने
स्थानीय रूप से प्राप्त शैलचित्रो को कृषि कार्यों में लगे मानव कबीलों से जोड़ा है
तो क्या इन मानवाकृतियों को आखेट से जोड़ा जा सकता है। जब तक इन मानवाकृतियों का
निश्चित प्रयोग नहीं मालूम पड़ता हांलांकि तब तक तो कुछ भी कहना मुश्किल है। ये
आयुध क्या हैं, इनका प्रयोजन क्या है इसकी
जानकारी के अभाव में इसे अपने रूप के आधार पर मानवाकृति नाम से अभिविहित किया गया
है। कदाचित मूर्तिपूजा के प्रारम्भ होने से बहुत पहले इस प्रकार की मानवाकृतियां
मानवीय आस्थाओं से सम्बन्धित होकर पूजित होती रहीं हैं। कुमाऊँ में ताम्रखदानों
में प्रारम्भ से ही व्यवसायिक स्तर पर
ताबें का निष्कषर्ण होता रहा था। राइं-आगर, बोरा-आगर, सीरा, असकोट, खरही एवं रामगढ में व्यवसायिक स्तर पर
उत्पादन करने वाली ताम्रखदानें रही थीं। प्रो डी पी अग्रवाल ने अयस्क से तांबां
तैयार करने वाली तीन प्राचीन भट्टियों का उल्लेख किया है जो राइ्र-आगर क्षेत्र से
प्राप्त हुई है। यद्यपि ये काफी नष्ट हो चुकी हैं। फिर भी पता चलता है कि 19वीं शती तक इन भट्टियो का अयस्क निष्कर्षण के लिए प्रयोग किया जाता
होगा। डा0 मदनचंद भट्ट को उपलब्ध एक
ताम्रपत्र से पता चलता है कि तांबे की खानों के प्रचुरता से उपलबध होने के कारण
राजा लोग ऐसे गांव जिनमें तांबे की खाने थीं
ताम्रकला के लिए उपहार स्वरूप भी दिया करते थे। मणिकोटी राजा पृथ्वीचंद के अठिगांव
ताम्रपत्र में विवरण मिलता है कि उहोने वशु उपाध्याय नामक ब्राहमण को ताम्रकला के
लिए एक गांव दान दिया था। लेकिन ऐसा कोई साक्ष्य उपलब्ध नहीं है जिनसे लगता हो कि
ये मानवाकृतियां बाहर से आयात की गयी है यद्यपि उ प्र से भी
मानवाकृतियां प्राप्त हुई हैं लेकिन एक साथ इतनी मानवाकृतियां कहीं से प्राप्त
नहीं हुई है। ये आयुध क्या हैं, इनका प्रयोजन क्या है इसकी
जानकारी के अभाव में इसे अपने रूप के आधार पर मानवाकृति नाम से अभिविहित किया गया
है। कदाचित मूर्तिपूजा के प्रारम्भ होने से बहुत पहले इस प्रकार की मानवाकृतियां
मानवीय आस्थाओं से सम्बन्धित होकर पूजित होती रहीं हैं। में योजनाबध्द उत्खनन के
अभाव में ताम्रसंचयी संस्कृति के उपकरण न के बराबर प्राप्त हुए हैं। जो
मानवाकृतियां प्राप्त भी हुई हैं वे अनायास तथा भूमि की उपरी सतह के भीतर रखी हुई
थीं। वैसे भी निर्माणाधिकार्यों में प्राचीन सामग्री मिलती ही रहती है। लेकिन खेद
जनक है कि लोगों को इन चीजों की जानकारी नहीं हैं और वे इन महत्वपूर्ण अवशेषों को
भी बाजार में पुराने तांबे के भाव बेच आते हैं। इस छोटे से क्षेत्र में इतनी बड़ी
संख्या में ताम्रमानवाकृतियां मिलना एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है। हो सकता है कि
भविष्य में होने वाले योजनाबध्द सर्वेक्षणों तथा उत्खनन आदि से यहां ताम्रसंचयी संस्कृति के
अनजाने पृष्ठों पर भी विस्तृत सामग्री उपलब्ध हो जाये।
अन्तराष्ट्रीय
बौद्ध आश्रम (कसारदेवी)
इन दिनों अल्मोड़ा का
अन्तराष्ट्रीय बौद्ध आश्रम उच्च स्तरीय ध्यान एवं साधना करने वाले
विदेशी साधकों के लिए विशेष आकर्षण का केन्द्र बना हुआ है।यह साधना केन्द्र बौद्ध धर्म अनुयायिंयों की कग्युग शाखा
का उत्तराखंड में स्थापित सबसे
पुराना मठ है जिसे 1968 में स्थापित किया गया था।इस
आश्रम को इवांग छोंग कोटलिंग डिगुग कग्यूत के नाम से भी जाना जाता है। यहां प्रदान की जाने वाली उच्च स्तरीय आध्यात्मिक शिक्षा के कारण विश्व भर से
बौद्ध धर्म के अनुयायी इस केन्द्र में आते हैं।
अल्मोड़ा से सात किमी0 की दूरी
पर स्थित कसारदेवी क्षेत्र को आध्यात्मिक उर्जा का केन्द्र
कहा जाता है। प्राचीन समय से ही उच्च कोटी के संत इस स्थान की ओर साधना करने आते रहे हैं। स्वामी विवेकानंद, परमयोगी शून्यता नींब करोरी बाबा माँ आनंदमयी आदि अनेक संत कसारदेवी
आये हैं । कसारदेवी मंदिर की भूमि से सटा
हुआ है बौद्ध दर्शन एवं ज्ञान का विख्यात केन्द्र कग्युग बौद्ध आश्रम जो अन्तराष्ट्रीय स्तर का साधना एवं
ध्यान केन्द्र है। इस स्थान की
आध्यात्मिक उर्जा से प्रभावित होकर बौद्ध विषयों के विद्वान डब्लू वाइ इवांस वैंज ने 1933 में इसे अपने निवास के लिए चुना था।वे बुक ऑफ़ डैड नामक प्रसिद्ध पुस्तक के रचियता थे। विख्यात बौद्ध
विद्वान लामा आंगरिक गोविन्दा का निवास स्थल भी यही आश्रम रहा है। लामा
गोविन्दा मूल रूप से जर्मन थे। बाद में वे बौद्ध धर्म में दीक्षित हुए। उनकी पत्नी ली गौतमी भी उन्हीं की तरह विद्वान थी।लामा गोविन्दा एवं ली गौतमी
को तिब्बती बौद्ध ग्रंथों का मार्गदर्शी अनुवादक माना जाता
है। उन्होनें विश्व आर्य मैत्रेय मंडल की स्थापना की थी । यहाँ रह कर उन्होने तिब्बत की रहस्यमय योग साधना पर
अनेक हस्तलिखित पुस्तकों का अनुवाद किया। उनके द्वारा लिखी गई पुस्तक द वे आफ व्हाइट क्लाउड ने उन्हें
अन्तराष्ट्रीय ख्याति प्रदान की थी।
आश्रम के स्थान को बाद में लामा
रिंगझेन ने लामा गोविन्दा से प्राप्त किया। उनकी पत्नी सोनम छोट्म ने परम्परा को जारी रखते हुए
इस केन्द्र
का विकास बौद्ध मठ एवं अन्तराष्ट्रीय ध्यान केंद्र के रूप में किया।
मुख्य मंदिर में भगवान बुद्ध की
अत्यंत भव्य एवं सुन्दर प्रतिमा है।जो लगभग 11 पुफट ऊँची है यह प्रतिमा मंदिर की मुख्य प्रतिमा है। इनके
दूसरी ओर गुरू पद्भसम्भव
की प्रतिमा है। पद्मसम्भव अपनी दोनों पत्नियों सहित दर्शाये गये हैं। कक्ष में मक्खन की बनी
अन्य छोटी प्रतिमायें भी हैं जिन्हें विशेष पूजन के अवसर पर तैयार किया
जाता है । गर्मियों के मौसम में भी ये प्रतिमायें पिघलती नहीं हैं। मुख्य
मंदिर को अनेक थंका चित्रों से सजाया गया है।
पिछले चालीस वर्षों में यह
स्थान अन्तराष्ट्रीय साधना का प्रसिद्ध केन्द्र बन चुका है। आश्रम की
विधिवत स्थापना से अब तक अनेक अन्तराष्ट्रीय समूह यहा ध्यान एवं साधना के लिए आ चुके
हैं। ये समूह अमेरिका जर्मनी सिंगापुर आदि देशों से आये हैं।इनकी साधना तीन वर्ष तीन माह तीन दिन
के लिए होती है।
साधकों का इस पूरे समय में केवल पूजन के अवसरों को छोड़ कर शेष दुनिया से कोई सम्बन्ध नहीं
रहता। इन साधकों को बौद्ध
आचार्य यहाह्ण विधिवत
शिक्षा प्रदान करते हैं।देहरादून के विद्वान आचार्य कग्युग रिनपोछे इस स्थान के धार्मिक क्रिया
कलापों को सम्पन्न कराते हैं।
यहाँ बुद्ध पूर्णिमा दलाई लामा
का जन्मदिवस आदि त्योहार के रूप में मनाये जाते हैं। सभी धर्मों के लोग यहा आकर निःशुल्क साधना
एवं ध्यान कर
सकते हैं। कुन्दन सिंह खम्पा बताते हैं कि हर तीसरे वर्ष यहाह्ण विश्व शांति के लिए यज्ञ होता
है। मंदिर के प्रबन्धक प्रेमा दोरजे बताते हैं कि यह स्थली महान संत इ
डब्लू वेंगे लामा आंगरिक गोविन्दा तथा की तपः स्थली है इसलिए भविष्य में भी
इसे और अधिक विकसित करने के प्रयास किये जा रहे हैं।
Om Tat Sat
(Continued...)
(My
humble salutations to the great devotees
, wikisources and Pilgrimage tourist guide for the
collection )
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